Monday, 5 November 2012
दीपावली में मौम का दीप जलाना अयोग्य क्यों ?
दीपावलीमें मोमके दीप जलाना अयोग्य क्यों ?
मोममें कष्टदायक तरंगें आकृष्ट करनेकी क्षमता होना : मोम के दीपमें वायुमंडलकी कष्टदायक तरंगें, जबकि मोमकी सूक्ष्म-गंधमें ७ वें पातालके मांत्रिकोंको आकृष्ट करनेकी क्षमता है । मोमकी ज्योत कष्टदायक घटकोंके निर्दालनका कार्य न कर, उन्हें आकर्षित कर संपूर्ण वायुमंडलमें प्रक्षेपण करती है । इसलिए मोमका दीप जलाना अयोग्य है ।
मोमबत्तीके विचित्र आकारसे कष्टदायक घटक आकृष्ट होना : मोमके दीपके सामान्य (लंबी व गोलाकार) तथा विविध विशेष आकारमें कष्टदायक घटकोंको बडी मात्रामें आकर्षित करनेकी क्षमता है । ये कष्टदायक तरंगें अथवा घटक आकारके माध्यमसे दीपमें प्रविष्ट होकर वहांसे प्रक्षेपित होती हैं ।
दीपावलीके दिनोंका आध्यात्मिक महत्त्व
दीवाली (दीपावली)
व्युत्पत्ति एवं अर्थ : दीवाली शब्द ‘दीपावली’ शब्दसे बना है ।
दीपावली, दीप+आवली (पंक्ति, कतार) इस प्रकार बना है । इसका अर्थ है,
दीपोंकी पंक्ति अथवा कतार । कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी (धनत्रयोदशी / धनतेरस),
कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी (नरकचतुर्दशी), अमावस्या (लक्ष्मीपूजन) एवं
कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा (बलिप्रतिपदा) ये चार दिन दीपावली मनाई जाती है ।
कुछ लोग त्रयोदशीको दीपावलीमें सम्मिलित न कर, शेष तीन दिनोंकी
ही दीवाली मनाते हैं । वसुबारस एवं भैयादूजके दिन दीपावलीके साथ ही आते
हैं, इसी कारण इनका समावेश दीपावलीमें किया जाता है; परंतु वास्तवमें ये
त्यौहार भिन्न हैं । आईए देखते हैं इन त्यौहारोंका शास्त्रीय महत्त्व
- वसुबारस (गोवत्स द्वादशी)
कार्तिक कृष्ण द्वादशी इस तिथिको वसुबारस अथवा गोवत्स द्वादशी कहते
हैं । ऐसी कथा है कि समुद्रमंथनसे पांच कामधेनु उत्पन्न हुई । उनमेंसे नंदा
नामक धेनुको उद्देशित कर यह व्रत मनाया जाता है । इस दिन सौभाग्यवती स्त्रियां एकभुक्त रहकर, प्रातः अथवा संध्याकालमें सवत्स गायकी पूजा करती हैं ।
महत्त्व : ‘भारतीय संस्कृतिमें गौ अत्यंत महत्त्वपूर्ण एवं पूजनीय है ।
उसे माता भी कहते हैं । सत्त्वगुणी, अपने सान्निध्यसे दूसरोंको पावन
करनेवाली, अपने दूधसे समाजको बलिष्ठ करनेवाली, अपने अंग-प्रत्यंग अर्पण कर
समाजके लिए उपयुक्त, खेतोंमें अपने गोबरकी खादद्वारा उर्वरता लानेवाली,
खेतके लिए उपयुक्त बैलोंको जन्म देनेवाली, श्रीकृष्णको प्रिय एवं सर्व देव
जिसमें वास कर सकें , ऐसी पात्र गोमाताका इस दिन पूजन करते हैं । वह
सात्त्विक है, इसलिए सबको इस पूजनद्वारा उसके सात्त्विक गुणोंको स्वीकारना
है । जहां गोमाताका संरक्षण-संवर्ध्दन न होता है, उसे पूज्यभाव देकर उसका
पूजन किया जाता है, वहां व्यक्ति, समाज व राष्ट्रका उत्कर्ष हुए बिना नहीं
रहता ।’
गुरुद्वादशी : इस दिन शिष्य गुरुका पूजन करते हैं इसीलिए इस तिथिको गुरुद्वादशी भी कहते है ।
धनत्रयोदशी
धनत्रयोदशीको बोली भाषामें धनतेरस कहा जाता है । इस दिन व्यापारी
तिजोरीका पूजन करते हैं । व्यापारी वर्ष, दीवालीसे दीवालीतक होता है । नए
वर्षके हिसाबकी बहियां इसी दिन लाते हैं ।
भावार्थ : ‘जिस कारण हमारे जीवनका पोषण सुचारू रूपसे चल रहा है, उस धनकी पूजा करते हैं । यहां ‘धन’ अर्थात शुद्ध लक्ष्मी । श्रीसूक्तमें वसु, जल, वायु, अग्नि, सूर्यको धन ही कहा गया है । यही धन महत्त्वपूर्ण है; यही खरी लक्ष्मी है ! अन्यथा अलक्ष्मी (केवल पैसे) के कारण अनर्थ होता है ।
इस दिन नवीन सुवर्ण खरीदनेकी प्रथा है । इससे वर्षभर घरमें धनलक्ष्मी
वास करेंगी । वास्तविक लक्ष्मीपूजनके समय हमें वर्षभरका जमाखर्च करना होता
है । धनत्रयोदशीतक शेष संपत्तिका खर्च प्रभुकार्यके लिए करनेपर,
‘सत्कार्यमें धन खर्च होनेके कारण वह धनलक्ष्मी अंततक लक्ष्मीरूपमें रहती
है ।’ धन अर्थात् पैसा । शास्त्र कहता है, ‘यह पैसा जो हमने वर्षभर पाई-पाई जमा किया, उसमेंसे कमसे कम १/६ भाग प्रभुकार्यके लिए खर्च करना चाहिए ।’
धन्वंतरि जयंती आयुर्वेदकी दृष्टिसे यह दिन
धन्वंतरि जयंतीका है । वैद्य मंडली इस दिन धन्वंतरि (देवताओंके वैद्य)का
पूजन करते हैं । लोगोंको नीमके पत्तोंके छोटे टुकडे एवं शक्कर प्रसादके
रूपमें बांटते हैं । इसका गहरा अर्थ है । नीमकी उत्पत्ति अमृतसे हुई है ।
इससे प्रतीत होता है, कि धन्वंतरि अमृतत्वके दाता हैं । प्रतिदिन नीमके
पांच-छः पत्ते खाना स्वास्थ्यके लिए हितकारी होता है और इससे रोगकी संभावना
घट जाती है । नीमका इतना महत्त्व है । इस कारण इस दिन यही धन्वंतरिके प्रसादके तौरपर दिया जाता है ।
यमदीपदान
यमराजका कार्य है प्राण हरण करना । कालमृत्युसे कोई नहीं बचता और न ही
वह टल सकती है; परंतु ‘किसीको भी अकाल मृत्यु न आए’, इस हेतु धनत्रयोदशीपर
यमधर्मके उद्देश्यसे गेहूंके आटेसे बने तेलयुक्त (तेरह) दीप संध्याकालके
समय घरके बाहर दक्षिणाभिमुख लगाएं । सामान्यतः दीपोंको कभी दक्षिणाभिमुख
नहीं रखते, केवल इसी दिन इस प्रकार रखते हैं । आगे दिए गए मंत्रसे
प्रार्थना करें ।
मृत्युना पाशदंडाभ्यां कालेन श्यामसह ।
त्रयोदश्यांदिपदानात् सूर्यजः प्रीयतां मम ।।
अर्थ : ये तेरह दीप मैं सूर्यपुत्रको अर्पण करता हूं । वे मृत्युके पाशसे मुझे मुक्त करें व मेरा कल्याण करें ।
नरकचतुर्दशी
श्रीमद्भागवतपुराणमें एक कथा है - ‘पूर्वकालमें प्राग्ज्योतिषपुरमें
भौमासुर अथवा नरकासुर नामक एक बलशाली असुर राज्य करता था । वह देवताओं एवं
मानवोंको अत्यंत कष्ट देने लगा । यह दुष्ट
दैत्य स्त्रियोंको भी पीडा देने लगा । जीतकर लाई हुई सोलह ह़जार
विवाहयोग्य राज्यकन्याओंको उसने बंदीगृहमें कैद कर दिया एवं उनसे विवाह
करनेका निश्चय किया । इस कारण सर्वत्र त्राहि-त्राहि मच गई । यह समाचार
मिलते ही श्रीकृष्णने सत्यभामासहित असुरपर हमला किया । नरकासुरका अंत कर
सर्व राजकुमारियोंको मुक्त किया । मरते समय नरकासुरने कृष्णसे वर मांगा, कि
‘आजके दिन मंगलस्नान करनेवाला नरककी पीडासे बच जाए ।’ कृष्णने उसे तदनुसार
वर दिया । इस कारण कार्तिक कृष्ण चतुर्दशीको नरकासुर चतुर्दशीके नामसे
मानने लगे एवं इस दिन लोग सूर्योदयसे पूर्व अभ्यंगस्नान करने लगे ।
चतुर्दशीके दिन प्रातः नरकासुरका वध कर उसके रक्तका तिलक माथेपर लगाकर
श्रीकृष्ण घर लौटे । आते ही नंदने उन्हें मंगल स्नान करवाया । स्त्रियोंने
आरती उतारकर आनंद व्यक्त किया ।’
यमतर्पण
अभ्यंगस्नान (तेल-उबटनसे मालिशके उपरांत किया स्नान)के पश्चात अकाल मृत्युके निवारण हेतु यमतर्पणकी विधि बताई गई है । यह विधि
पंचांगमें दी हुई है । इसे देखकर ही विधि करनी चाहिए । इसके पश्चात माता
पुत्रोंकी आरती उतारती हैं । आगे नरकासुर-वधके प्रतीकके तौरपर कारीट (एक
कडवा फल) पैरसे कुचलते हैं ।
लक्ष्मीपूजन
इस दिनकी
कथा इस प्रकार है - ‘विष्णुने लक्ष्मी सहित सर्व देवताओंको बलिके कारागारसे
मुक्त किया । उसके उपरांत ये सर्व देवता, क्षीरसागरमें जाकर सो गए ।’ ऐसा
बताया गया है कि उनके प्रीत्यर्थ प्रत्येक व्यक्ति अपने घरपर सर्व
सुखोपभोगोंकी उत्तम व्यवस्था करे एवं सर्वत्र दीप जलाए । लक्ष्मीपूजन करते
समय एक चौकीपर अक्षतसे अष्टदल कमल अथवा स्वस्तिक बनाकर उसपर लक्ष्मीकी
मूर्तिकी स्थापना करते हैं । लक्ष्मीके समीप ही कलशपर कुबेरकी प्रतिमा रखते
हैं । उसके पश्चात लक्ष्मी इत्यादि देवताओंको लौंग, इलायची और शक्कर डालकर
तैयार किए गए गायके दूधसे बने खोयेका नैवेद्य चढाते हैं । धनिया, गुड,
चावलकी खीलें, बताशा इत्यादि पदार्थ लक्ष्मीको चढाकर तत्पश्चात सभी बांटते
हैं । उसके उपरांत हाथमें मशाल लेकर पितृमार्गदर्शन करते हैं । (दक्षिण
दिशाकी ओर बत्ती दिखाकर पितृ-मार्गदर्शन करते हैं ।) पुराणोंमें कहा गया
है, कि कार्तिक अमावस्याकी रात लक्ष्मी सर्वत्र संचार करती हैं एवं अपने
निवासके लिए योग्य स्थान ढूंढने लगती हैं । जहां स्वच्छता, शोभा एवं रसिकता
दिखती है, वहां तो वह आकर्षित होती ही हैं; इसके अतिरिक्त जिस घरमें
चारित्रिक, कर्तव्यदक्ष, संयमी, धर्मनिष्ठ, देवभक्त एवं क्षमाशील पुरुष तथा
गुणवती एवं पतिव्रता स्त्रियां निवास करती हैं, ऐसे घरमें वास करना
लक्ष्मीको भाता है ।’ लक्ष्मी संपत्तिकी देवता हैं तथा कुबेर
संपत्ति-संग्राहक हैं । कुबेर देवता पैसा किस प्रकारसे रखना चाहिए यह सिखाते हैं, क्योंकि वह धनाधिपति है इसीलिए इस पूजा हेतु लक्ष्मी कुबेर यह देवता बताए गए हैं । प्रत्येक व्यक्ति विशेष रूपसे व्यापारी यह पूजा उत्साहसे तथा ठाट-बाटसे करते हैं ।इस पूजामें धनिया और खीलें चढाते हैं; इसका कारण यह है
कि धनिया धनवाचक शब्द है ।‘खीलें’ समृद्धिका प्रतीक हैं । थोडासा धान
भूंजनेपर उससे अंजलिभर खीलें बनती हैं ।लक्ष्मीकी समृद्धि होनी चाहिए, इस
कारण समृद्धिकी प्रतीक खीलें चढाई जाती हैं ।(सनातन-निर्मित श्रीलक्ष्मी
देवीका सात्त्विक चित्र । इस चित्रमें लक्ष्मीदेवीका तत्त्व २८ प्रतिशत है ।
अन्य चित्रों एवं मूर्तियोंमें यह १-२ प्रतिशत ही होता है ।)
अलक्ष्मी निःसारण
यद्यपि गुणोंका निर्माण किया हो, फिर भी उन्हें महत्ता तब प्राप्त होती है जब दोष नष्ट होते हैं । यहां
लक्ष्मी प्राप्तिका उपाय बताया है, उसी प्रकार अलक्ष्मीका नाश भी होना
चाहिए; अतः इस दिन नई झाडू खरीदते हैं । इसे ‘लक्ष्मी’ कहते हैं । ‘नई
झाडूसे मध्यरात्रि घरका कूडा सूपमें भरकर बाहर पेंâकना चाहिए, ऐसा कहा गया
है । इसे अलक्ष्मी (कचरा - दारिद्र्य) निःसारण कहते हैं । सामान्यतः रातको
कभी भी घर नहीं बुहारते और न ही कूडा पेंâकते हैं; केवल इसी रात यह करना चाहिए । कूडा निकालते समय सूप बजाकर भी अलक्ष्मीको खदेड देते हैं ।
बलिप्रतिपदा
(कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा)
यह साढे तीन मुहूर्तोंमेंसे आधा मुहूर्त है
। बलिप्रतिपदाकी कथा इस प्रकार है - बलिराजा अत्यंत दानवीर थे । द्वारपर
पधारे अतिथिको उनसे मुंहमांगा दान मिलता था । अपात्र मानवोंके हाथ संपत्ति
लगनेपर वे मदोन्मत्त होकर मनमानी करने लगते हैं । तब विष्णुने वामन अवतार
लिया तथा बलिराजाके पास जाकर भिक्षा मांगी । बलिराजाने पूछा, क्या चाहिए ?
तब वामनने त्रिपाद भूमिदान मांगा । बलिराजाने त्रिपाद भूमि इस वामनको
दानमें देते ही इस वामनने विराटरूप धारण कर एक पैरसे समस्त पृथ्वी नाप ली,
दूसरे पैरसे अंतरिक्ष और फिर बलिराजासे पूछा तीसरा पैर कहां रखूं ? उसने
उत्तर दिया तीसरा पैर मेरे मस्तकपर रखें । तब तीसरा पैर उसके मस्तकपर रख,
उसे पातालमें भेजनेका निश्चय कर वामनने बलिराजासे कहा, तुम्हें कोई वर
मांगना हो, तो मांगो (वरं ब्रूहि) । बलिराजाने वर मांगा कि, ‘तीन पगके इस प्रसंगके प्रतीकरूप पृथ्वीपर प्रतिवर्ष न्यूनतम तीन दिन मेरे राज्यके तौरपर माने जाएं ।’ ये तीन दिन
अर्थात कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी, अमावस्या एवं कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा ।
इसे ‘बलिराज्य’ कहा जाता है । बलिप्रतिपदाके दिन धरतीपर पंचरंगी
रंगोलीद्वारा बलि एवं उनकी पत्नी विंध्यावलीके चित्र बनाकर उनकी पूजा करनी
चाहिए । इसके पश्चात बलिप्रीत्यर्थ दीप एवं वस्त्रका दान करना चाहिए । इस
दिन प्रातःकाल अभ्यंगस्नान करनेके उपरांत स्त्रियां अपने पतिकी आरती उतारती
हैं । दोपहरमें ब्राह्मणभोजन तथा मिष्ठान्नयुक्त भोजन बनाती हैं ।
दिवालीका यह दिन
मुख्य समझा जाता है । इस दिन लोग नए वस्त्रावरण धारण कर समस्त दिन
आनंदपूर्वक बिताते हैं । इस दिन गोवर्धनपूजा करनेकी प्रथा है । गोबरका
पर्वत बनाकर उसपर दूर्वा और पुष्प चढाते हैं तथा इनके समीप कृष्ण, ग्वाले,
इंद्र, गाएं, बछडोंके चित्र सजाकर उनकी भी पूजा करते हैं तथा झांकियां
निकालते हैं ।
भैयादूज (यमद्वितीया)
‘कार्तिक शुक्ल द्वितीया’ अर्थात यमद्वितीया कहा जाता है । यह दिन
भैयादूजके नामसे प्रसिद्ध है । इस दिन यम अपनी बहनके घर भोजन करने गए थे,
इसलिए इस दिनको यमद्वितीया कहते हैं । इस दिन किसी भी पुरुषको अपने घरपर
अथवा अपनी पत्नीके हाथका अन्न नहीं खाना चाहिए । इस दिन उसे अपनी बहनके घर
वस्त्र, गहने इत्यादि लेकर जाना चाहिए और उसके घर भोजन करना चाहिए । ऐसा
बताया गया है, कि सगी बहन न हो तो किसी भी बहनके पास अथवा अन्य किसी भी
स्त्रीको बहन मानकर उसके यहां
भोजन करना चाहिए ।’ किसी स्त्रीका भाई न हो, तो वह किसी भी पुरुषको भाई
मानकर उसकी आरती उतारे । यदि ऐसा संभव न हो, तो चंद्रमाको भाई मानकर आरती
उतारते हैं ।
प्रक्षेपित होती हैं ।
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