गांधी की हत्या से संबंधित मामले की सुनवाई के दौरान नाथूराम गोडसे ने अदालत में बयान दिया था-'हिंदुओं के उत्थान के लिए काम करने के दौरान मुझे लगा कि हिंदुओं के अधिकारों की रक्षा के लिए देश की राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा लेना जरूरी है। इसीलिए मैं संघ छोड़ हिंदू महासभा में शामिल हो गया'। यहां गांधी के हत्यारे ने स्वयं ही खुद को आरएसएस से अलग कर हिंदू महासभा से जोड़ा है। गांधीजी की हत्या उसने अकेले नहीं की। इस साजिश में शामिल रहे दिगंबर बादगे, जिसे बाद में क्षमदान दे दिया गया, ने भी आरएसएस पर अंगुली नहीं उठाई। इस स्वीकारोक्ति के दौरान गोडसे एक चलती फिरती लाश से अधिक कुछ नहीं था। उसकी नियति एक लिफाफे में सीलबंद हो गई थी। उस समय गोडसे पुणे में हिंदू महासभा समर्थक एक अखबार का संपादक था और उसका कथन अदालत में दिए लंबे चौड़े बयान का एक हिस्सा था। जाहिर है इस तथ्य का अपना महत्व है, क्योंकि गांधीजी की हत्या को आरएसएस से जोडऩे के लिए लगातार अभियान चलाया गया। आरएसएस के विरोध की इस कहानी की शुरुआत दिसंबर 1947 से ही हो गई थी जब पंडित नेहरू ने संघ को जहरीले वृक्ष की संज्ञा दे दी थी। हालांकि तब नेहरू ने इस तथ्य को नजरअंदाज कर दिया था कि विभाजन के दौरान हिंदुओं की सुरक्षा में ढेरों आरएसएस कार्यकर्ताओं की मौत हो गई थी और किस तरह आरएसएस कार्यकर्ता दिल्ली में कांग्रेस नेताओं के घरों की सुरक्षा में लाठी लेकर तैनात रहते थे।
गांधीजी की हत्या के कुछ ही दिनों बाद खबरों में गोडसे को आरएसएस का आदमी कहा जाने लगा। अखबारों में आरएसएस से उसके दुराव और हिंदू महासभा में जाने की बातें नदारद थीं। वास्तव में अपने जीवन के अंतिम कुछ वर्षों में गोडसे आरएसएस का कट्टर आलोचक बन गया था। आरएसएस और हिंदू महासभा के संबंध काफी जटिल रहे हैं। बीस के दशक से हिंदू राष्ट्रवादी आंदोलन का करीब से अध्ययन करें तो इन दोनों के बीच के फर्क को आसानी से समझ सकेंगे। आज भी हिंदू महासभा अपने बयानों में संघ की आलोचना करती है कि वह हिंदू समाज के लिए कुछ नहीं कर रहा है। संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार हिंदू महासभा या कांग्रेस, सभी से अच्छे रिश्ते रखने के हिमायती थे। दोनों समूहों में ढेरों नेता उनके दोस्त थे। तब संघ हमेशा चौकस रहता और कोई टिप्पणी करने से बचता, जबकि नागपुर में हिंदू महासभा की पहचान संघ की खिल्ली उड़ाने वाले संगठन के रूप में थी। हालांकि तब इस बात की थोड़ी उम्मीद थी कि संघ हिंदू महासभा के कैडर के रूप में काम करेगा और अपने राजनीतिक हितों की पूर्ति करेगा, लेकिन डॉ. हेडगेवार ने पूरी विनम्रता के साथ इसका विरोध किया। डॉ. हेडगेवार इस उद्देश्य के प्रति दृढ़ थे कि संघ का काम सिर्फ हिंदू समाज को संगठित करना होगा। इसके बाद कुछ हताश लोगों ने संघ से दूरी बना ली, लेकिन इससे संघ के कदम नहीं लडख़ड़ाए। वह निरंतर आगे बढ़ता रहा।
गांधीजी की हत्या के बाद गुरु गोलवलकर द्वारा समय-समय पर सरदार पटेल और पंडित नेहरू को पत्र लिखे गए। इनमें उन्होंने गांधीजी की हत्या को विकृत आत्मा द्वारा किया गया घृणित कृत्य बताया। 30 जनवरी, 1948 को गुरुजी ने आरएसएस के लिए 13 दिनों के शोक दिवस की घोषणा की और सामान्य कामकाज को निलंबित कर दिया। बाद में ऐसा किसी सरसंघचालक की मृत्यु होने पर भी नहीं हुआ। कुछ समय बाद गुरुजी को गिरफ्तार कर लिया गया। बताया जाता है कि इसके एक महीने के अंदर ही करीब 20 हजार स्वयंसेवकों की गिरफ्तारी हुई थी। उसके बाद से अत्याचार का एक चक्र शुरू हो गया। यहां तक कि बच्चों को भी नहीं बख्शा गया। इसी साल अप्रैल में मैं केरल के एक 84 साल के स्वयंसेवक से मिली। जब गांधीजी की हत्या हुई तो वह बहुत छोटे थे। उन्होंने मुझे बताया कि जब वह स्कूल में थे तब कई छात्रों को शाखाओं में गिरफ्तार किया गया, उनके घरों की तलाशी ली गई और गांधी के हत्यारे होने का आरोप लगाया गया। गांधीजी की हत्या के बाद के कठिन दिनों में जिस तरह की कहानियां गढ़ी गईं उससे यह विश्वास होने लगा कि उनकी हत्या के पीछे आरएसएस है। 27 फरवरी, 1948 को पंडित नेहरू को लिखे अपने पत्र में सरदार पटेल ने जांच के आधार पर आरएसएस को दोषमुक्त बताया था, लेकिन प्रतिबंध को नहीं हटाया गया।
समय बीतने के साथ आरएसएस को झुकाने के लिए इसे राजनीतिक मौके के रूप में भुनाया जाने लगा। कांग्रेस द्वारा आरएसएस के उग्र विरोध के संबंध में गुरुजी द्वारा लिखे पत्र के जवाब में सरदार पटेल के 11 सितंबर, 1948 के पत्र का प्राय: जिक्र किया जाता है कि उस समय गुरुजी आरएसएस से प्रतिबंध हटाने के लिए कुछ समझौते करने की कोशिश कर रहे थे। पत्र की अन्य बातें जो नहीं कहीं जाती हैं उन पर ध्यान देना जरूरी है। सरदार पटेल ने गुरुजी को सुझाव दिया था कि आरएसएस अपनी देशभक्ति का कारवां तभी आगे बढ़ा सकता है जब वह कांग्रेस में शामिल हो जाए। अलग रहकर और विरोध कर उसे कुछ नहीं मिलेगा। जाहिर है इस तरह आरएसएस को धमकाने की कोशिश हुई। आज भी आरएसएस कार्यकर्ता की सबसे बड़ी पहचान उनका अनुशासन है और किसी भी पार्टी के लिए वह पूंजी होगा। कांग्रेस के अपने सेवा दल ने अपनी अनुशासनहीनता के चलते सरदार पटेल को हताश कर दिया था। पटेल आरएसएस को प्रतिबंधित करने की घटना से पाक साफ बाहर निकलने के लिए एक सम्मानजनक रास्ता खोज रहे थे, लेकिन गुरुजी डॉ. हेडगेवार के बनाए रास्ते से तनिक भी विचलित नहीं हुए। उन्होंने एक सांस्कृतिक संगठन के रूप में आरएसएस की पहचान बनाए रखी और कहा कि यह स्थिति (आरएसएस का राजनीतिक संगठन बनना) असहनीय है और जो लोग इसमें शामिल हैं उन्हें इसका हक नहीं है। उसके बाद तनाव और गहरा गया। प्रतिबंध बरकरार रहा और गुरुजी को गिरफ्तार कर लिया गया। उस समय आरएसएस ने नौ दिसंबर, 1948 को सत्याग्रह कर इसका विरोध किया। परिणामस्वरूप सरकार वार्ता की मेज पर आई। तमाम किंतु-परंतु के बाद सरदार पटेल ने ड्राफ्ट स्वीकार किया और जुलाई 1949 में आरएसएस पर से प्रतिबंध हटाया गया। आज भी संघ में दो चीजें नहीं बदली हैं। एक संघ की गतिविधियों में किशोरावस्था के पूर्व ही भागीदारी और दूसरा सरसंघचालक के चुनाव का तरीका।
जाहिर है गांधीजी की हत्या में आरएसएस का हाथ होने का आरोप साबित करने में तत्कालीन सरकार विफल रही थी। हाल ही में आरएसएस को गांधीजी का हत्यारा बताए जाने के लिए राहुल गांधी को सुप्रीम कोर्ट से फटकार मिली है। कोर्ट ने कहा है कि गलत आरोप के लिए या तो वह माफी मांगें या मुकदमे का सामना करें। आश्चर्यजनक है कि राहुल गांधी ने जांच आयोग की रिपोर्ट को दरकिनार करते हुए गलत तथ्य पर कायम रहने का निर्णय किया है। पटेल की बातें रिकॉर्ड में हैं और कोर्ट के फैसलों तक में आरएसएस को गांधी की हत्या का दोषी नहीं माना गया है। इसी तरह के आरोप में एक अखबार ने आरएसएस से 2003 में बिना किसी शर्त माफी मांगी थी। दरअसल इसके लिए राहुल दोषी नहीं हैं। यह सब उनके सलाहकारों की कारगुजारी कही जा सकती है। अब इस मुकदमे के शुरू होने से दो ही समूह प्रसन्न होंगे। एक राहुल गांधी के वकील और दूसरा आरएसएस, जिसे निर्णायक खंडन के लिए लंबे समय से इंतजार है।