केन्द्र सरकार भारत की जनता की अपनी सरकार है। जनता ने बहुत सोच समझ कर
राजनीतिक अराजकता मिटाने के लिए एक ऐसी शख्सियत पर विश्वास किया है, जिसे
उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी मौत का सौदागर, राक्षस, कसाई, रावण आदि
अलंकारों से अलंकृत करते थे। सभी इस जननेता की राह में अवरोध खड़े करने के
लिए एक हो गये थे, किन्तु उस समय उनके दिलों पर सांप लौट गया, जब संसद में
उन्होंने सुना था, ‘ मैं नरेन्द्र दामोदर मोदी, ईश्वर की शपथ लेता हूं कि
प्रधानमंत्री के रुप में, मै………………’ वे यह सुन कर तिलमिला गये थे। कई दिनों
तक ये शब्द उनके कानों में गर्म शीशे की तरह उतरते रहे। उन्हें किसी भी
तरह यह स्वीकार्य नहीं था कि नरेन्द्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बन जाय।
राजनीतिक नफरत की यह पराकाष्ठा थी। लोकतंत्र में किसी की व्यक्तिगत
उपेक्षा, तिरस्कार और घृणा का कोई स्थान नहीं होता। सता पर किसी पार्टी और
व्यक्ति का विशेषाधिकार नहीं रहता। जनता जिसे चाहेगी सता सौंपेंगे। जनता के
निर्णय को शिरोधार्य करने के अलावा कोई विकल्प ही शेष नही रहता।
जो शासक बन कर भारत पर राज कर रहे थे और भविष्य में किसी की भी चुनौती जिन्हें स्वीकार नहीं थी, उनके अभिमान को जनता ने चूर-चूर कर दिया। तुष्टीकरण, धर्मनिरपेक्षता और जातीय संकीर्णता का सहारा ले, जो राजनीतिक रोटियां सेक रहे थे, उनकी रोटियां जल गयी। जनता ने उन्हें आकाश से उठा कर जमीन पर पटक दिया। जनादेश ने स्पष्ट संकेत दे दिया- हमे शासक नहीं, सेवक चाहिये। धर्म और जाति की राजनीति नहीं, सुशासन चाहिये। सरकार कुछ नेताओं और अफशरों की निजी धरोहर नहीं होती, लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकार जनता की होती है, जनता ही मालिक होती है, जनता के लिए कार्य करना ही सरकार का दायित्व रहता हे।
बहरहाल अजगर की तरह अपनी कुडली में सारी फाईलें दबा निश्चेष्ट पड़़ी सरकार के स्थान पर कठोर परिश्रम करने वाली सरकार काम कर रही है। भारत को पहला ऐसा प्रधानमंत्री मिला है, जो अठारह घंटे काम करता है। उनके पास अपना निजी कुछ नहीं है। उन्होंने अपना सारा समय और शक्ति देश को समर्पित कर दी है। सारे मंत्रालय के कार्यालय प्रातः जल्दी खुलते हैं और देर रात तक काम होता है। एक कारपोरेट आॅफिस की तरह सिर्फ काम को ही अब पूजा जाता है। जो कार्यालय पहले भ्रष्टाचार के अड्डे थे, जहां बड़े-बड़े घोटाले करने की रणनीति बनायी जाती थी, वहां अब देश की जनता की भलाई के लिए नीतियां बनायी जा रही है। पहले मंत्री और नौकरशाह इस बात का चिंतन करते थे कि कैसे अपने लिए अकूत धन का जुगाड़ किया जा सके, किन्तु अब यह चिंतन किया जा रहा है कि कैसे देश की खस्ता हालत को सुधारा कर अर्थव्यवस्था को पटरी पर ला, विकास के पथ पर आगे बढ़ाया जा सके।
जब वे सत्ता में थे या सत्ता से जुडे़ हुए थे, नरेन्द्र मोदी की बातों की खिल्ली उड़या करते थे, किन्तु अब वे सत्ता से बाहर हैं, तो मोदी सरकार के देश हित में लिये गये निर्णयों के विरुद्ध जनता को आक्रोशित करने का प्रयास कर रहे हैं। उदाहरण के लिए दस सालों में पिछली सरकार यदि प्रतिवर्ष दो प्रतिशत रेल किराया बढ़ाती, तो बीस प्रतिशत रेल किराया वैसे भी बढ़ जाता। अब यदि नयी सरकार ने एक साथ चैदह प्रतिशत किराया बढ़ा दिया, तो इसमें इतना हाय तौबा करने की कहां आवश्यकता है ? क्या उन्हें यह मालूम नहीं है रेलवे को यदि छब्बीस हजार करोड़ का घाटा हो रहा है, उसका भार भी तो भारत की जनता को ही उठाना पड़ रहा है, जबकि सिद्धान्तः सारा भार रेल में यात्रा करने वाले यात्रियों पर ही डाला जाना चाहिये, पूरे देश के नागरिकों पर नहीं, जो रेल में यात्रा ही नहीं करते हैं। जो सिर्फ अपने राजनीतिक स्वार्थ को ही ज्यादा महत्व देते हैं, उनकी कोई नीति नहीं होती। वे देशहित के बजाय अपने हित पर ज्यादा ध्यान देते हैं। सरकार के विरुद्ध बौखलाहट और खीझ जताने के लिए वे जनता को जानबूझ कर भ्रमित करते हैं।
जबकि पिछली सरकार ने रण छोड़ कर भाग रही सेना की तरह सब कुछ तबाह कर दिया है। सड़ी हुई व्यवस्था नयी सरकार को विरासत में मिली है। इस पूरी व्यवस्था को सुधारना और उसे चुस्त-दुरुस्त करना काफी चुनौतीपूर्ण काम है। पूर्व प्रधानमंत्री का कार्यालय भ्रष्टाचार की गंगोत्री बन गया था, तब कैसे उस सरकार से आशा कर सकते थे कि पूरे देश में फैले भ्रष्टचार को समाप्त करने के लिए सरकार गम्भीर नीतियां बनायेगी ?
एक भ्रष्ट सरकार की जो सूत्रधार थी, उनकी बौखलाहट इसलिए बढ़ रही है, क्योंकि सरकार बदल जाने से उनके हाथ में कुछ नहीं रहा है। अब उनके पापों को छुपाने के लिए सीबीआई जैसी संस्था पर उनका नियंत्रण नहीं रहा है। गंदगी साफ करते-करते नयी सरकार को ऐसे तथ्य हाथ लग सकते हैं, जिससे देश को चलाने का अधिकार लें, जो उसे गर्त में गिराने का उपक्रम कर रहे थे, उनकी असली सूरत जनता के सामने आ जायेगी।
जिस सरकार को बने जुम्मे-जुम्मे चार दिन हुए हैं, उस सरकार के निर्णयों पर जनता को उकसाना, टीवी के चेनलों पर आ कर दरबारियों द्वारा एक जवाबदेय और ईमानदार सरकार पर व्यंगात्मक लहजे से बयान देना, दरअसल पिछली सरकार के संचालकों की खीझ और हताशा को प्रकट कर रहा है। देशहित जिनके लिए सर्वोपरी नहीं है, वे किसी बहाने अपनी खाल बचाने का प्रयास कर रहे हैं। यदि अल्पमत सरकार बनती तो उस पर वे आसानी से अंकुश लगा सकते थे, किन्तु पूर्ण बहुमत वाली सरकार का वे कुछ बिगाड़ भी तो नहीं सकते।
नयी सरकार को टीवी चेनलों की संदिग्ध भूमिका की भी जांच करनी चाहिये। देश के वातावरण को दूषित करने में टीवी चेनल महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। केजरीवाल को हीरो इन्हीं चेनलों ने बनाया था, जिससे उन्हें देश विदेश की भारत विरोधी ताकतों से भारी भरकम चंदा मिला था। कुछ टीवी चेनल नरेन्द्र मोदी को सत्ता में नहीं आने देने के दुष्प्रचार में पूर्व सत्ताधारी पार्टी के सहयोगी बने हुए थे। ये टीवी चेनल अब भी नही सुधरें हैं। सरकार को अलोकप्रिय बनाने की नीति अपनाये हुए हैं। रेल किराये में बढ़ात्तरी पर जनता के समक्ष स्वस्थ चिंतन प्रस्तुत करने के बजाय बात का बतंगड़ करने और सरकार को बदनाम करने के लिए उन पिटे हुए राजनेताओं के बयान बार-बार टीवी पर दोहरा रहे हैं, जिन्हें जनता ने पूर्णतया तिरस्कृत कर दिया है। सरकार देशद्रोही टीवी चेनलों के मालिकों के विरुद्ध शिकंजा कसे, उसके पहले जनता को भी इन्हें बहिस्कृत करना चाहिये, ताकि ये अपने मन की इस भ्रांति को निकाल दें कि भारत मूर्खों का देश है, जनता को झूठे प्रचारतंत्र के सहारे आसानी से मूर्ख बनाया जा सकता है।
जो शासक बन कर भारत पर राज कर रहे थे और भविष्य में किसी की भी चुनौती जिन्हें स्वीकार नहीं थी, उनके अभिमान को जनता ने चूर-चूर कर दिया। तुष्टीकरण, धर्मनिरपेक्षता और जातीय संकीर्णता का सहारा ले, जो राजनीतिक रोटियां सेक रहे थे, उनकी रोटियां जल गयी। जनता ने उन्हें आकाश से उठा कर जमीन पर पटक दिया। जनादेश ने स्पष्ट संकेत दे दिया- हमे शासक नहीं, सेवक चाहिये। धर्म और जाति की राजनीति नहीं, सुशासन चाहिये। सरकार कुछ नेताओं और अफशरों की निजी धरोहर नहीं होती, लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकार जनता की होती है, जनता ही मालिक होती है, जनता के लिए कार्य करना ही सरकार का दायित्व रहता हे।
बहरहाल अजगर की तरह अपनी कुडली में सारी फाईलें दबा निश्चेष्ट पड़़ी सरकार के स्थान पर कठोर परिश्रम करने वाली सरकार काम कर रही है। भारत को पहला ऐसा प्रधानमंत्री मिला है, जो अठारह घंटे काम करता है। उनके पास अपना निजी कुछ नहीं है। उन्होंने अपना सारा समय और शक्ति देश को समर्पित कर दी है। सारे मंत्रालय के कार्यालय प्रातः जल्दी खुलते हैं और देर रात तक काम होता है। एक कारपोरेट आॅफिस की तरह सिर्फ काम को ही अब पूजा जाता है। जो कार्यालय पहले भ्रष्टाचार के अड्डे थे, जहां बड़े-बड़े घोटाले करने की रणनीति बनायी जाती थी, वहां अब देश की जनता की भलाई के लिए नीतियां बनायी जा रही है। पहले मंत्री और नौकरशाह इस बात का चिंतन करते थे कि कैसे अपने लिए अकूत धन का जुगाड़ किया जा सके, किन्तु अब यह चिंतन किया जा रहा है कि कैसे देश की खस्ता हालत को सुधारा कर अर्थव्यवस्था को पटरी पर ला, विकास के पथ पर आगे बढ़ाया जा सके।
जब वे सत्ता में थे या सत्ता से जुडे़ हुए थे, नरेन्द्र मोदी की बातों की खिल्ली उड़या करते थे, किन्तु अब वे सत्ता से बाहर हैं, तो मोदी सरकार के देश हित में लिये गये निर्णयों के विरुद्ध जनता को आक्रोशित करने का प्रयास कर रहे हैं। उदाहरण के लिए दस सालों में पिछली सरकार यदि प्रतिवर्ष दो प्रतिशत रेल किराया बढ़ाती, तो बीस प्रतिशत रेल किराया वैसे भी बढ़ जाता। अब यदि नयी सरकार ने एक साथ चैदह प्रतिशत किराया बढ़ा दिया, तो इसमें इतना हाय तौबा करने की कहां आवश्यकता है ? क्या उन्हें यह मालूम नहीं है रेलवे को यदि छब्बीस हजार करोड़ का घाटा हो रहा है, उसका भार भी तो भारत की जनता को ही उठाना पड़ रहा है, जबकि सिद्धान्तः सारा भार रेल में यात्रा करने वाले यात्रियों पर ही डाला जाना चाहिये, पूरे देश के नागरिकों पर नहीं, जो रेल में यात्रा ही नहीं करते हैं। जो सिर्फ अपने राजनीतिक स्वार्थ को ही ज्यादा महत्व देते हैं, उनकी कोई नीति नहीं होती। वे देशहित के बजाय अपने हित पर ज्यादा ध्यान देते हैं। सरकार के विरुद्ध बौखलाहट और खीझ जताने के लिए वे जनता को जानबूझ कर भ्रमित करते हैं।
जबकि पिछली सरकार ने रण छोड़ कर भाग रही सेना की तरह सब कुछ तबाह कर दिया है। सड़ी हुई व्यवस्था नयी सरकार को विरासत में मिली है। इस पूरी व्यवस्था को सुधारना और उसे चुस्त-दुरुस्त करना काफी चुनौतीपूर्ण काम है। पूर्व प्रधानमंत्री का कार्यालय भ्रष्टाचार की गंगोत्री बन गया था, तब कैसे उस सरकार से आशा कर सकते थे कि पूरे देश में फैले भ्रष्टचार को समाप्त करने के लिए सरकार गम्भीर नीतियां बनायेगी ?
एक भ्रष्ट सरकार की जो सूत्रधार थी, उनकी बौखलाहट इसलिए बढ़ रही है, क्योंकि सरकार बदल जाने से उनके हाथ में कुछ नहीं रहा है। अब उनके पापों को छुपाने के लिए सीबीआई जैसी संस्था पर उनका नियंत्रण नहीं रहा है। गंदगी साफ करते-करते नयी सरकार को ऐसे तथ्य हाथ लग सकते हैं, जिससे देश को चलाने का अधिकार लें, जो उसे गर्त में गिराने का उपक्रम कर रहे थे, उनकी असली सूरत जनता के सामने आ जायेगी।
जिस सरकार को बने जुम्मे-जुम्मे चार दिन हुए हैं, उस सरकार के निर्णयों पर जनता को उकसाना, टीवी के चेनलों पर आ कर दरबारियों द्वारा एक जवाबदेय और ईमानदार सरकार पर व्यंगात्मक लहजे से बयान देना, दरअसल पिछली सरकार के संचालकों की खीझ और हताशा को प्रकट कर रहा है। देशहित जिनके लिए सर्वोपरी नहीं है, वे किसी बहाने अपनी खाल बचाने का प्रयास कर रहे हैं। यदि अल्पमत सरकार बनती तो उस पर वे आसानी से अंकुश लगा सकते थे, किन्तु पूर्ण बहुमत वाली सरकार का वे कुछ बिगाड़ भी तो नहीं सकते।
नयी सरकार को टीवी चेनलों की संदिग्ध भूमिका की भी जांच करनी चाहिये। देश के वातावरण को दूषित करने में टीवी चेनल महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। केजरीवाल को हीरो इन्हीं चेनलों ने बनाया था, जिससे उन्हें देश विदेश की भारत विरोधी ताकतों से भारी भरकम चंदा मिला था। कुछ टीवी चेनल नरेन्द्र मोदी को सत्ता में नहीं आने देने के दुष्प्रचार में पूर्व सत्ताधारी पार्टी के सहयोगी बने हुए थे। ये टीवी चेनल अब भी नही सुधरें हैं। सरकार को अलोकप्रिय बनाने की नीति अपनाये हुए हैं। रेल किराये में बढ़ात्तरी पर जनता के समक्ष स्वस्थ चिंतन प्रस्तुत करने के बजाय बात का बतंगड़ करने और सरकार को बदनाम करने के लिए उन पिटे हुए राजनेताओं के बयान बार-बार टीवी पर दोहरा रहे हैं, जिन्हें जनता ने पूर्णतया तिरस्कृत कर दिया है। सरकार देशद्रोही टीवी चेनलों के मालिकों के विरुद्ध शिकंजा कसे, उसके पहले जनता को भी इन्हें बहिस्कृत करना चाहिये, ताकि ये अपने मन की इस भ्रांति को निकाल दें कि भारत मूर्खों का देश है, जनता को झूठे प्रचारतंत्र के सहारे आसानी से मूर्ख बनाया जा सकता है।