Monday 13 July 2015

फिर अमन का दीया जला रहे हैं, बुझाने के लिए

इतिहास के घरोंदे में हमने कितने दीये जलाये और बुझायें हैं, पर हर बार हम उसमें विश्वास का तेल डालना भूल जाते हैं। कोर्इ आ कर दीये में इंसानी खून उडे़ल देता है। दीया बुझ जाता है। हम फिर अंधेरे में ठोकरे खाते हैं। हम पर जुनून सवार होता है। हम दुश्मन बन जाते हैं। नंगी तलवारे लहराते हुए अपने दुश्मन का सर काटने के लिए तैयार हो जाते है। एक दूसरे को मिटाने की कसमे खाते रहते हैं। यह सिलसिला अडसठ वर्ष से चल रहा है। बार-बार अमन का दीया जलाने की असफल कोशिश की जाती है। दीया जलता नहीं, बुझ जाता है। आशा बंधती है, फिर टूट जाती है। सियासत से अच्छा सुकून मिलने को बेताब करोड़ो दिलों की हसरते हर बार अधुरी रह जाती है।
अब उन्हें कौन समझाए कि धरती बांट देने से उन दिलों को एक दूसरे से जुदा नहीं कर सकते, जिनके पुरखे शताब्दियों से इसी धरती पर एक साथ रह रहे थे। जिन्हें यहीं जलाया गया था या दफनाया गया था। उसी धरती पर अलग-अलग मुल्कों की दीवारे खींच दीं। चार-पांच युद्ध लड लिये। नफरत बनी रहे हैं, इसके लिए कभी न खत्म होने वाला दहशतगर्दी का युद्ध लड रहे हैं। परमणु अत्र बना कर अपने अस्तित्व मिटा देने को भी तैयार हो गये, किन्तु अपनी जबान, तहजीब और आदते नहीं बदल पायें। एक दूसरे से फिर जुड़ कर आपसी विश्वास पैदा करने की कसक कम नहीं कर पाये। हिन्दी फिल्मों और हिन्दुस्तानी संगीत की दीवानगी नहीं छोड़ पाये। हिमालय से बहने वाली हवाओं को नहीं रोक पाये। रावी और चिनाब के पानी का रंग नहीं बदल पाये। नदियों के साथ बह कर आ रही हिन्दुस्तान की धरती की माटी और उसकी गंध को नहीं रोक पाये। इधर से उड कर उधर जाने वाले परिंदों की राह नहीं बदल पाये।
बहुत हो चुका। सियासत को भूल कर हम इंसान के जज्बाती रिश्तों की बात करें। अब समय आ गया है कि अमन का दीया जलाने की कोशिश करने के पहले बही खाता खोल कर हिसाब देख लें। किसने क्या खोया और क्या पाया इसका हिसाब समझ लें। बहीखाते में लाभ शून्य है, पर हानि की कोर्इ सीमा नहीं है। खून की स्याही से लाशों की गिनती लिखी हुर्इ है। बेमतलब के बेहूदा जुनून की भेंट चढ़ने वाला चाहे इधर का था या उधर का, पर था तो किसी का बेटा, शौहर, भार्इ या बाप। अंदाजा लगा सकते हैं, उन मां-बाप पर क्या गुजर रही है, जिसका बेटा चला गया और वे रोने के लिए संसार में बचे रहें। जिन बेवाओं की असमय मांग उजड़ गर्इ और वे पहाड़ सी जिंदगी अकेले जीने के लिए रह गर्इ। मासूम बच्चे यतीम हो गये, क्योंकि उनके सर पर से बाप का साया उठ गया।
कश्मीर लेने और और कश्मीर नहीं देने की कीमत पर यह सारा सियासी खेल खेला जा रहा है। लड़े गये जंग और दहशतगर्दी में कितने लोग दोनो तरफ मारे गये, उन सबका हिसाब देखेंगे तो रुह कांप उठेगी। परन्तु दुखद आश्चर्य है कि उनका कोर्इ नहीं मरा जो पर्दे के पीछे बैठ कर ऐसा घटिया सियासी खेल खेलते हैं। अडसठ वर्षों से वे हिन्दुस्तान से कश्मीर लेने की जद्धोजहद कर रहे हैं। जानते हैं- हिन्दुस्तान कश्मीर देगा नहीं और हम हांसिल नहीं कर पायेंगे, पर जिद्ध छोड़ेंगे नहीं, क्योकि ऐसा करेंगे तो उन लोगों का दाना पानी बंद हो जायेगा,जो कश्मीर की रट लगाते हुए ही जिंदगी मजे से गुजार रहे हैं। इस रट ने उन्हें खुशहाली का तोहफा दिया और बदले में वे दूसरों जिंदगी तबाह कर रहे हैं। कश्मीर के नाम पर खून-खराबा उनकी फिदरत में हैं, जिसे वे रोक नहीं सकते। यदि यह खून खराबा रुक गया तो वे क्या करेंगे ? उनके पास करने को कोर्इ काम ही नहीं बचेगा।
कश्मीर का मसला है, इसलिए पाकिस्तान का वजूद बना हुआ है। यदि मसला हल हो जायेगा, तो नफरत की दीवार गिर जायेगी। टेंशन खत्म होते ही लोगों को इधर से उधर जाने की छूट मिल जायेगी। फौज की अहमियत खत्म हो जायेगी। पाकिस्तान के बाज़ारों की दुकाने हिन्दुस्तानी सामान से भर जायेगी। पाकिस्तानी सड़को पर भारत में बनी कारे दौड़ेगी। भारतीय उद्योगपति पाकिस्तान में कारखानों का जाल बिछा देंगे। भारतीय शिक्ष संस्थान में पाकिस्तानी बच्चों की बाढ़ आ जायेगी। स्वास्थय केन्द्रों में पाकिस्तानी मरीजो की संख्या बढ़ जायेगी। अजमेर ख्वाजा के दरबार में जायरिनो की भीड़ बढ़ जायेगी। दो चार सालों में ही ऐसा लगने लगेगा जैसे पाकिस्तान कोर्इ दूसरा देश है ही नहीं, वह तो उत्तर प्रदेश और बिहार की तरह भारत का ही एक प्रान्त है।
ऐसा सुखद सपना आज़ादी के बाद की चार पीढ़िया तो देख नहीं पायी और पांचवी और छठी भी नहीं देख पायेगी, क्योंकि अमन की राह में हमेशा फौज और उनके सहयोगी अवरोध बन कर खड़े रहेंगे, क्योंकि आवाम की खुशहाली की कीमत पर वे अपनी बर्बादी नहीं चाहते। किन्तु गरीब पाकिस्तानी जनता को अपना पेट काट कर भारी भरकम फौज का भार ढ़ोना पड़ रहा है। कश्मीर के बहाने फौज ने पाकिस्तानी राजनीति में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका बना रखी है। अत: लाख चाहने पर भी पाकिस्तानी जनता और लोकतांत्रिक सरकारे कुछ नहीं कर सकती। अमन के दीये बार-बार जलाने की कवायद की जायेगी और उसे बुझाने का सिलसिला चलता रहेगा। सरकारे आयेगी और जायेगी। वार्तएं चालू होगी और बंद होगी। कभी कोर्इ निर्णय नहीं निकलेगा, क्योंकि पाकिस्तानी फौज अमन का दीया जलाना नहीं चाहती। अंधेरा रहेगा तभी उसकी हुकूमत बनी रहेगी। उजाले में जब जनता को सब कुछ साफ-साफ दिखार्इ देगा, तब वह उसकी नसीहतों पर कौन यकीन करेगा ?
अमन का दीया जलाने की कोशिश पाकिस्तानी की आवाम करेगी, तभी इसकी लौ बुझेगी नहीं, वो जलती रहेगी। फौज के आतंक से सरकारे डरती है, आवाम भी डरती रही तो कभी कोर्इ मसला हल नहीं होगा। उसे यह फैंसला करना होगा कि गरीबी और बैगारी से निज़ात चाहिये या कश्मीर चाहिये। ताकतवर फौज चाहिये या जनता के हित में बुलंद फैंसले लेने वाली लोकतांत्रिक सरकार चाहिये। हिन्दुस्तानी आवाम के दिलों से जुड़ने की कशिश चाहिये या हमेशा एक दूसरे को मिटा देने की कसमे खानी चाहिये।
इसी उम्मीद में जी रहे हैं कि अमन का दीया एक दिन जलेगा। लम्बी अंधेरी रात जुदा होगी। नया सवेरा होगा। एक नयी सुबह को हम सब मिल कर आने वाली पीढ़ियों के बेहतर भविष्य के लिए सारे सियासी दांव-पेंच भूल, खुशहाली और अमन के नये गीत गायेंगे।