समझौता

समझौता एक सामान्य शब्द है, लेकिन बड़े-बड़े वैमनस्य, शत्रुता और परिस्थितियों से सामंजस्य बिठाने में इसका कोई जवाब नहीं है। आज की जीवन प्रणाली में तनाव और चिंता इतनी बढ़ गई है कि मनुष्य का मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है। किसी विद्वान ने ठीक ही कहा है कि चिंता चिता समान है। हमारी इच्छाओं और कामनाओं के अलावा इलेक्ट्रॉनिक संसाधनों ने दुनिया से तो नजदीकियां बढ़ा दी हैं, लेकिन परिवार से दूरियां बढ़ती जा रही हैं। स्वस्थ गतिविधियों के लिए समयाभाव है। सुख-समृद्धि की अंधी दौड़ और खंडित व्यक्तित्व के कारण व्यक्ति तनाव और चिंता में रहता है, जिससे क्रोध और अनर्गल भाषा का प्रयोग उसकी आदत बन जाती है। इसका परिणाम टूटते संबंधों एवं बिखरते परिवारों के रूप में परिलक्षित होता है। इस विघटनकारी स्थिति से मुक्त होने के लिए जो जैसा है, उसे वैसा ही स्वीकार करके जीने से जीवन का भार कम हो जाता है। इसी संबंध में रूस के प्रसिद्ध दार्शनिक टॉलस्टाय का कहना है कि - मनुष्य सबसे अधिक यातना अपने विचारों से ही भोगता है। किसी भी प्रतिकूलता का प्रतिकार या तिरस्कार करने से वह घटती नहीं, बल्कि कई गुना बढ़ जाती है। आज आवश्यकता इस बात है की है कि व्यक्ति अपनी भौतिकतावादी दृष्टि के स्थान पर आध्यात्मिक दृष्टि का विकास करे। दूसरों के साथ व्यवहार करते समय आग्रह-बुद्धि का त्याग करे, दूसरों के विचारों को सुनें, समझें एवं शांति और धैर्य के साथ सही तथ्यों के आधार पर निर्णय लें। जीवन में घटने वाली घटनाओं, संबंधों और परिस्थितियों के साथ अहं का परित्याग कर समझौतावादी दृष्टिकोण अपनाएं।
समझौते की प्रवृत्ति को लोग भीरुता का पर्याय समझते हैं, लेकिन यह शांतिपूर्ण ढंग से जीवन जीने की कला है। अनेकांतवाद हमें यही मार्गदर्शन प्रदान करता है कि हमें एक दूसरे की समस्याओं, दृष्टिकोणों और विचारों को समझने का प्रयास कर उचित सम्मान देना चाहिए। किसी मध्यबिंदु पर आकर समझौता करना चाहिए। पूर्वाग्रह से ग्रसित नहीं होना चाहिए। इस वृत्ति को बढ़ावा देने से हम अपनी पारिवारिक जीवन की समस्याओं को सुगमता से सुलझा सकते हैं। विवाह-विच्छेद, आत्महत्या, हत्या आदि सभी के पीछे आवेग और दूसरों की बातों को समझने की चेष्टा का अभाव होता है। अहं को त्यागकर समझौता करना महानता का परिचायक होता है।

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