आसक्ति

वैसे तो आसक्ति शब्द लगाव का पर्यायवाची है और लगाव बहुत अच्छी भावना है। लगाव में व्यक्ति को सकारात्मक ऊर्जा और प्रेरणा मिलती है, लेकिन जब व्यक्ति को किसी वस्तु से इतना अधिक लगाव हो जाता है कि वह उसके बिना रह नहीं पाता या उसे उसके अभाव में कुछ भी अच्छा नहीं लगता तो यह प्रवृत्ति आसक्ति बन जाती है, जो एक प्रकार का नशा है। किसी वस्तु के प्रति विशेष रुचि होना ही आसक्ति है। इसलिए चिंता का मूल कारण आसक्ति है। किसी चीज के प्रति अत्यधिक आसक्ति व्यक्ति को न केवल जीवित रहते अशांत बनाए रखती है, बल्कि मृत्यु के बाद भी वह उसी तृष्णा और वासना से मनुष्य को घुमाती और बेचैन बनाए रहती है। दरअसल हमारे अंत: पटल में सारी क्रियाएं दो कारकों से संचालित होती हैं। पहली मस्तिष्क और दूसरी मन।
मस्तिष्क के जरिये संचालित क्रियाएं गुण और दोष की विवेचना के उपरांत ही होती हैं, जबकि मन के द्वारा संचालित क्रियाओं पर गुण-दोष का कोई असर नहीं होता। इसे इस तरह भी कह सकते हैं कि मन के द्वारा संचालित क्रियाएं समय, काल, परिस्थितियों से अनभिज्ञ रहती हैं। मन को जो अच्छा लगे या मनमाफिक करना ही आसक्ति है। इसमें अच्छे-बुरे, ऊंच-नीच का कोई प्रश्न ही नहीं उठता है। उदाहरण के लिए शराब पीने वाला व्यक्ति अच्छी तरह से जानता है कि शराब उसके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, लेकिन इसके बावजूद वह शराब पीता है। शराब उसके लिए आसक्ति है। आसक्ति एक बंधन की तरह है, जिसमें फंसकर मनुष्य छटपटाता रहता है। अमुक वस्तु को पाए बगैर वह बेचैन रहता है। आसक्ति में मनुष्य अपने आप को ही भूल जाता है कि वह क्या है और उसका उद्देश्य क्या है।
असल में हमारा मन गुण-दोष की विवेचना नहीं करता है, उसे जो अच्छा लगता है वह वही करता है, जबकि इसके विपरीत हमारे मस्तिष्क के पास गुण-दोष को परखने-समझने की शक्ति होती है। हर बार आसक्ति बुरी नहीं होती। बाकायदा कई बार आसक्ति मनुष्य के लिए ऊर्जा का काम भी करती है। सवाल यह है कि मनुष्य किस दिशा में आसक्त है। यदि आसक्ति की दिशा नकारात्मक है, तो क्षणिक आनंद के बाद मनुष्य अपने जीवन मूल्यों से भटक जाएगा।
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