Thursday 29 December 2016

स्वप्न और यथार्थ

जीवन का सूक्ष्म रूप स्वप्न है और स्थूल रूप यथार्थ। जीवन की धारा सूक्ष्म से स्थूल की ओर बढ़ती है। बिना स्वप्न के यथार्थ की सत्ता नहीं हो सकती। इसे इस तरह से भी कह सकते हैं कि विचार करने के बाद उसे कार्य रूप में तब्दील करना स्वप्न से यथार्थ बनने जैसा है। जो जितना बड़ा स्वप्नदर्शी होता है उसके जीवन का उद्देश्य उतना ही बड़ा होता है, लेकिन यह उद्देश्य तब पूरा होता है जब वह यथार्थ में परिवर्तित हो जाता है। स्वप्न और यथार्थ के मध्य जो सेतु का कार्य करता है, वह है साधना। ज्ञान-विज्ञान, गणित, व्यवहार, दर्शन और साहित्य जितने भी विषय हैं सभी स्वप्न और यथार्थ के साथ आगे बढ़ते हैं, लेकिन ये तब पूरा होते हैं जब कठोर श्रम साथ में किया जाए। समझना यह भी है कि बेहतर जिंदगी, बेहतर समाज और उच्च मानव मूल्यों के लिए किस तरह के स्वप्न देखे जाएं और इन्हें किस तरह यथार्थ में परिवर्तित करें। अच्छे शब्दों, अच्छे विचारों वाले वाक्यों और भावों को मन में बार-बार दोहराते रहिए। देखिएगा किस तरह शुभत्व का प्रवाह होने लगता है। कहा गया है जो व्यक्ति जैसा स्वप्न देखता है, फिर उस स्वप्न को साकार करने के लिए जैसा प्रयास करता है वैसा वह यथार्थ में परिवर्तित हो जाता है। यानी स्वप्न और यथार्थ दोनों का बराबर महत्व है।
ब्रह्मा के दो लाड़ले पुत्र हैं। एक स्वप्न और दूसरा यथार्थ। दोनों में लड़ाई हुई। दोनों ब्रह्मा के पास पहुंचे और बोले-भगवन! आज आप निर्णय कर दीजिए कि हम दोनों में से किसकी महिमा अधिक है? ब्रह्मा को बेटों की नादानी पर हंसी आ गई। वह बोले-दोनों जमीन पर खड़े हो जाओ, जमीन पर खड़े-खड़े ही जो आकाश छू लेगा उसकी महिमा सबसे बड़ी है। दोनों परीक्षा देने को तैयार हो गए। स्वप्न ने आकाश तो छू लिया, लेकिन उसके पैर जमीन तक नहीं पहुंच सके। अब यथार्थ की बारी थी। जमीन पर तो वह स्थिर हो गया, लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद भी आकाश नहीं छू सका। दोनों को परीक्षा में फेल देख ब्रह्मा हंसे और बोले, 'देख लिया न, तुम दोनों की महिमा एक दूसरे के पूरक होने में है अकेले में नहीं। ' यह कथानक यह संदेश देता है कि हमारे जीवन में स्वप्न और यथार्थ में पूरकता होनी चाहिए। किसी एक से जीवन की सफलता नहीं है।
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Tuesday 6 December 2016

ब्रह्मज्ञान

उपनिषद के ऋषि जिसे ब्रह्मज्ञान कहते हैं, उसी को महर्षि पतंजलि द्रष्टा का अनुभव कहते हैं। भगवान महावीर आत्मज्ञान और भगवान बुद्ध निर्वाण ज्ञान कहते हैं। ओशो ने इसी को बुद्धत्व कहा है। इस आंतरिक अनुभूति की व्याख्या नहीं की जा सकती है। हमारा मन है शब्दों का भंडार, भाषा का जानकार, स्मृतियों का संग्रह, भावी योजनाओं का स्वप्नदर्शी। समाधि में यह चंचल मन शेष नहीं बचता। मात्र चेतना रहती है-भविष्य और भूतकाल से सर्वथारहित। शुद्ध वर्तमान में स्थित चेतना को बस चेतना का ही ज्ञान होता है। अन्य समस्त ज्ञान द्वैत पर आधारित होते हैं। चेतना ज्ञाता होती है और बाहर संसार का या फिर भीतर मन का कोई विषय ज्ञेय होता है। ये 'आब्जेक्टिव नॉलेज' हैं। संबोधि में 'सब्जेक्टिव नॉलेज' होता है। आत्मा केवल स्वयं आत्मा को ही जानती है, किसी अन्य को नहीं। इसलिए उसे अद्वैतज्ञान या कैवल्यज्ञान कहना भी उचित है। यह द्वंद्वरहित अवस्था ध्यान से मिलती है, न कि तन या मन की क्रियाओं से। ध्यान है-क्रियाओं और बुद्धि की सूक्ष्म क्रियाओं को द्रष्टा बनकर देखना,उनके साक्षी होना। ध्यान एकाग्रता नहीं, बल्कि समग्र जागरूकता है। विचारों के प्रवाह को ऐसे देखें, जैसे किसी सड़क से गुजरते लोगों को देख रहे हैं आप। किसी से कुछ लेना-देना नहीं है। न ही अच्छे-बुरे का निर्णय करें। सामने जो विषय है, उसमें रस न लेने के कारण, धीरे-धीरे चेतना पूरी तरह अपने पर ही लौट आती है। महावीर इसे प्रतिक्रमण और पतंजलि इसे प्रत्याहार कहते हैं। मौन, शांत, चुपचाप देखते-देखते आप दूर खड़े द्रष्टा बन जाएंगे। साधना में डूबते-डूबते कालांतर में कामना के सारे बीज नष्ट हो जाते हैं, तब निर्बीज समाधि घटती है। ऐसे ज्ञानी फिर जीवन-मुक्त हो जाते हैं, आवागमन के बंधन से छूट जाते हैं। संबोधि का अर्थ है-बोध का स्वयं में ठहर जाना, ज्ञान की शक्ति का आत्म-रमण। बहिर्मुखता के बंधन से छूटकर, अंतर्मुखता में या अपने स्वभाव में स्थिति। भगवान कृष्ण इसे ही स्थित-प्रज्ञ होना कहते हैं। दुनिया के सभी धर्म सच्चिदानंद की इस दशा को पाना ही मानव-जीवन का परम लक्ष्य बताते हैं। आनंद का यह खजाना बाहर नहीं, हमारे भीतर है। वस्तुत: यह उपलब्धि, कोई नया अन्वेषण नहीं, बल्कि शाश्वत सत्य का अनावरण है।
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लोभ की प्रवृत्ति

लोभ-लालच से आच्छादित मन, मृग-मरीचिका में भटकता रहता है, पर वह दूसरों को नहीं, बल्कि स्वयं को ठगता है। धोखा देने के चक्कर में स्वयं धोखा खाता है। दूसरों को छलने से स्वयं की आत्मा में छाले पड़ जाते हैं और वे रिसते रहते हैं। जहां लालच और लोभ की वृत्ति ज्ञात होने पर स्वजन और मित्रों का स्नेह भंग हो जाता है, वहीं लालच की विसंगति खुलने से स्वयं को भी आत्म-ग्लानि के साथ लच्जित होना पड़ता है। लालची और लोभी व्यक्ति अपने कपट-व्यवहार को कितना ही छिपाये देर-सबेर प्रकट हो ही जाता है। आज का मानव बहुरूपिया बन गया है, उसका स्वभाव जटिलताओं का केंद्र बन गया है। हर किसी के साथ और हर स्थान पर लोभ और लालच से पेश आता है। यहां तक कि भगवान के आगे भी वह अपनी लोभी बुद्धि का कमाल दिखाए बगैर बाज नहीं आता। एक व्यक्ति देवी के मंदिर में जाकर मनौती मांग रहा था, नि:संतान था। इसलिए उसने प्रार्थना की हे देवी! मुझे पुत्र की प्राप्ति हो जाए, मैं सोने की पोशाक चढ़ाऊंगा। कालांतर में पुत्र की प्राप्ति हो गई, उसका लोभ-लालच प्रबल हुआ। उसने बच्चे का नाम ही ‘सोने लाल’ रख लिया। एक कपड़े का टुकड़ा ला ‘झबला’ सिलकर बच्चे को पहनाया। फिर वही देवी को भेंट करते हुए कहा-देवी मां वायदे के अनुसार ‘सोने की पोशाक दे रहा हूं, बच्चे पर कृपा-दृष्टि रखना।’ यह मात्र एक दृष्टांत है, परंतु आज व्यक्ति हर समय, हर क्षण लोभ-लालच में लिप्त है।
कहा जाता है सर्प टेढ़ा-मेढ़ा वक्रता में चलता है, परंतु अपने ‘बिल’ में वह सीधा जाता है, परंतु मानव अपनी वक्रता, कूटनीति कभी नहीं छोड़ता। वह मायाजाल बुनता ही रहता है। धर्मात्मा का नाटक कर दो नंबर में अर्थोपार्जन करना अब सामान्य सी बात है। ऐसे ही व्यक्तियों को ‘बगुला भगत’ कहा गया है। मायाचारी और लोभी बदल-बदल कर छल-कपट के व्यवहार से पाप कमाता है। वह अपनी कुटिलता, छल, कपट, धोखेबाजी से क्षणिक सफलता पा भी ले, परंतु अंततोगत्वा कष्ट ही उठाता है। ऐसे व्यक्ति शंकाशील रहने के कारण भयभीत रहते हैं। वैसे कहावत भी है-काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती। अर्थात मायाचार, लोभ-लालच स्थायी सफलता नहीं दे सकते और जब बेईमानी का भांडा फूटता है, तो अपयश की चिंगारी दूर-दूर तक तपन से झुलसाती है। यह कुटिलता लोक-परलोक दोनों में ही दुखद है।
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Monday 5 December 2016

जीवन का संघर्ष

सनातन धर्म की कुछ कथाओं की सार्थकता हर युग में पाई जाती है। जैसे राम-रावण युद्ध, महाभारत और सागर मंथन। सागर मंथन हर मनुष्य पूरी जिंदगी करता है। यदि देवताओं की तरह उसके प्रयास और कार्यप्रणाली सत्मार्गी है तो उसे अमृत की प्राप्ति होती है। अन्यथा अनैतिक मार्गों के द्वारा किए मंथन के द्वारा अहंकार रूपी मदिरा प्राप्त होती है, जिसे पीकर वह पतन को प्राप्त होता है। इसी प्रकार राम-रावण युद्ध भी हर समय लड़ा जा रहा है। जो प्राणी सुग्रीव और विभीषण की तरह भगवान के पक्ष में युद्ध करते हैं उन्हें भवसागर को पार करने में विजय प्राप्त होती है और रावण की सेना के राक्षस जीवन मरण रूपी भवसागर में डूबते, उतरते रहते हैं और बार-बार अपने कर्मों के अनुसार निम्नतर योनियों में जन्म लेकर नर्क का दुख भोगते हैं। इसी प्रकार महाभारत की कथा का चित्रण भी किया गया है। गुरुनानक देव के अनुसार केवल मनुष्य ही ऐसा प्राणी है, जिसे बुद्धि और विवेक के अनुसार कर्म करने का अधिकार प्राप्त होता है। जिस प्रकार बुद्धि और विवेक मनुष्य को सत्कर्मों की तरफ प्रेरित करते हैं, उसी प्रकार अंधी इच्छाएं उसे मानसिक व्याधियां प्रदान करती हैं। महाभारत के कथानक के अनुसार धृतराष्ट्र की इच्छाएं अंधी थीं। इन अंधी इच्छाओं से उत्पन्न संतानें भी उसी प्रकार ईष्र्या, लोभ, मोह रूपी पुत्रों-दुर्योधन और दुशासन आदि कहलाती हैं।
बुद्धि और विवेक रूपी पांडव और धृतराष्ट्र और उनके पुत्रों रूपी बुराइयां हर मनुष्य में होती हैं, परंतु कृष्णरूपी अच्छे पथ-प्रदर्शक और मनुष्य की अपनी मेहनत और विवेक के जरिये कुछ जीवनरूपी महाभारत को जीत लेते हैं और शेष लोग अपनी इच्छाओं की पूर्ति करते-करते कौरवों की तरह जीवनरूपी संग्राम में मारे जाते हैं। ज्यादातर लोग अपनी बुराइयों के कारण असफल होने पर कहते हैं कि इस युग में कृष्णरूपी सारथी कहां तलाशें, परंतु ऐसे लोगों को यदि कोई अच्छा पथप्रदर्शक मिलता भी है तो ये उसके दिखाए मार्ग की खिल्ली उड़ाकर उस पर नहीं चलते हैं। भगवान कृष्ण ने दुर्योधन और धृतराष्ट्र को समझाकर सद्मार्ग पर चलने के लिए कहा था उसी प्रकार दुर्योधन ने भगवान का मजाक उड़ाकर उनके दिखाए मार्ग पर चलने से मना कर दिया था।
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धर्म क्या है?


आज के बहुत सारे हिन्दू ""धर्म''' का मतलब ही नहीं जानते हैं और अज्ञानतावश वे..... धर्म, संप्रदाय और मजहब को एक ही समझ लेते हैं....... और, उससे भी दुखद तो ये है कि...
धर्म को ना जानने के कारण बहुत सारे लोग......"" सभी धर्म एक समान"" सरीखे नारे को बुलंद करते आ जाते हैं...!
इसीलिए... ऐसे सेक्यूलरों को समुचित जबाब देने हेतु सबसे पहले हमें ये समझना होगा कि.... आखिर "धर्म" है क्या....और, धर्म की वास्तविक परिभाषा क्या है....?????
दरअसल.... ""धर्म"" संस्कृत भाषा का शब्द हैं... "धृ" धातु से बना हैं..... जिसका अर्थ होता है.... " धारण करने वाली""
इस तरह हम कह सकते हैं कि..... "धार्यते इति धर्म:" .......अर्थात, जो धारण किया जाये वह धर्म हैं,,,,।
दूसरे शब्दों में ....लोक परलोक के सुखों की सिद्धि हेतु ......सार्वजानिक पवित्र गुणों और कर्मों का धारण व सेवन करना ही धर्म हैं....।
अगर हम इतनी तकनीकी बातों को छोड़ कर सीधे-सीधे कहें तो.....
हम यह भी कह सकते हैं कि .... मनुष्य जीवन को उच्च व पवित्र बनाने वाली ज्ञानानुकुल ........जो शुद्ध सार्वजानिक मर्यादा पद्यति हैं ........वही धर्म हैं।
मिनी मुनि के मीमांसा दर्शन के दूसरे सूत्र में भी .......धर्म के लक्षण का विवरण हैं.. जो बताता है कि..... लोक परलोक के सुखों की सिद्धि के हेतु गुणों और कर्मों में प्रवृति की प्रेरणा धर्म का लक्षण कहलाता हैं।
साथ ही..... वैदिक साहित्य में धर्म......... वस्तु के स्वाभाविक गुण तथा कर्तव्यों के अर्थों में भी आया हैं...... जैसे कि ......
जलाना और प्रकाश करना अग्नि का धर्म हैं .........और , प्रजा का पालन और रक्षण राजा का धर्म हैं।
उसी प्रकार .... मनु स्मृति में धर्म की परिभाषा देते हुए कहा गया है कि.....
धृति: क्षमा दमोअस्तेयं शोचं इन्द्रिय निग्रह:
"धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणं" ६/९
अर्थात .......धैर्य,क्षमा, मन को प्राकृतिक प्रलोभनों में फँसने से रोकना, चोरी त्याग, शौच, इन्द्रिय निग्रह, बुद्धि अथवा ज्ञान, विद्या, सत्य और अक्रोध धर्म के दस लक्षण हैं।
दूसरे स्थान पर कहा हैं........
"आचार:परमो धर्म" १/१०८
अर्थात सदाचार परम धर्म हैं
( ध्यान रहे कि.... "आचार:परमो धर्म" को ही कुछ स्वार्थी तत्वों ने बदल कर ......... ""अहिंसा परमो धर्मः"" बना दिया है )
इसी तरह.... महाभारत में भी धर्म को समझाते हुए लिखा गया हैं कि ...
"धारणाद धर्ममित्याहु:,धर्मो धार्यते प्रजा:"
अर्थात .........जो धारण किया जाये और जिसे प्रजाएँ धारण की हुई हैं........ वह धर्म हैं।
सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि.... वैशेषिक दर्शन के कर्ता महामुनि कणाद ने धर्म का लक्षण बताते हुए कहा है कि.....
यतोअभयुद्य निश्रेयस सिद्धि: स धर्म:
अर्थात..... जिससे अभ्युदय(लोकोन्नति) और निश्रेयस (मोक्ष) की सिद्धि होती हैं, वह धर्म हैं।
और तो और.... आधुनिक समय के स्वामी दयानंद जो कि... आर्य समाज के संस्थापक भी है..... के अनुसार धर्म की परिभाषा
जो पक्ष पात रहित न्याय सत्य का ग्रहण, असत्य का सर्वथा परित्याग रूप आचार हैं उसी का नाम धर्म और उससे विपरीत का अधर्म हैं।-सत्यार्थ प्रकाश ३ सम्मुलास
पक्षपात रहित न्याय आचरण सत्य भाषण आदि युक्त जो ईश्वर आज्ञा वेदों से अविरुद्ध हैं, उसको धर्म मानता हूँ - सत्यार्थ प्रकाश मंतव्य
इस काम में चाहे कितना भी दारुण दुःख प्राप्त हो , चाहे प्राण भी चले ही जावें, परन्तु इस मनुष्य धर्म से पृथक कभी भी न होवें।- सत्यार्थ प्रकाश
इसका मतलब ........ सभी के सभी धर्मग्रंथ एवं ऋषि-मुनियों ने एक स्वर में यह बतलाया है कि.....
धर्म मनुष्य की उन्नति के लिए आवश्यक हैं......... और, धर्म के मनुष्य और पशु में कोई अंतर नहीं है....!
फिर भी "कुछ वामपंथी लोग" धर्म को ... समाज के "उत्थान में बाधक" समझाने का प्रयास करते हैं....!
और , इसकी शुरुआत वामपंथी कार्ल मार्क्स ने की थी.... जिसने धर्म को अफीम कह कह कर सम्बोधित किया था...!
असल में... कार्लमार्क्स ने ......... मजहब और संप्रदाय के सन्दर्भ में ये बात कही थी...... जिसे , बाद के लोगों ने विकृत कर "मजहब और संप्रदाय" की जगह "धर्म" कर दिया...!
जबकि, मजहब का मतलब ........ धर्म के बिलकुल ही विपरीत है..... और, मजहब किसी एक पीर-पैगम्बर के द्वारा स्थापित और उसी के सिद्धांतों की मान्यता को लेकर बनाए जाते हैं.... जिसका प्रमुख मकसद जनकल्याण नहीं बल्कि..... रक्तपात, अन्धविश्वास, बुद्धि के विपरीत किये जाने वाले पाखंडों आदि......... किसी भी प्रकार का प्रोपोगंडा कर अपने मजहब में लोगों की संख्या बढ़ाना होता है.... ताकि, वे उस समुदाय के अपने सिद्धांतों के हिसाब से .. भेड़ों की तरह हाँक हांक सकें.....!
इसी तरह.... संप्रदाय को भी धर्म की संज्ञा देना उचित नहीं है .... क्योंकि... संप्रदाय .... धर्म और मजहब के अंदर के भाग होते हैं..... सिर्फ , उनकी मान्यताओं और दर्शन में अंतर होता है...!
अंत में सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि..... एक हिन्दू सनातन धर्म ही उपरोक्त ""धर्म"" की परिभाषा पर खरा उतरता है.... जो हमें ,
धैर्य,क्षमा, मन को प्राकृतिक प्रलोभनों में फँसने से रोकना, चोरी त्याग, शौच, इन्द्रिय निग्रह, बुद्धि अथवा ज्ञान, विद्या, सत्य और अक्रोध ... आदि के बारे में बताता है...
ना कि.... किसी को धर्म परिवर्तन कैसे करवाना है.. अथवा, जेहाद कैसे चलाना है ... इस बारे....!
इसीलिए मित्रो.... सच को जाने .... क्योंकि, सच ही वो प्रकाश है जो..... मनहूस सेक्यूलरों द्वारा फैलाये प्रोपोगंडा रूपी इस अन्धकार को दूर कर ....
हमारे हिन्दू सनातन धर्म के अस्तित्व की रक्षा में सहायक होगा...!
हमेशा एक बात याद रखें कि....
अन्याय और पाप को सहने वाला भी उतना ही दोषी होता है.... जितना अन्याय और पाप करने वाला....!
इसीलिए.... हर चीज की सच्चाई को जानते हुए ....अपने अधिकारों के लिए लड़ना सीखो.... और.., 


आज एक संपूर्ण व्यक्तित्व की जरूरत है। व्यक्ति में तीन प्रकार की क्षमताएं होती हैं-सहज, अर्जित और ओढ़ी हुई। सहज क्षमता किसी-किसी में होती है। सहज क्षमता जिसमें होती है उसका व्यक्तित्व काफी अंशों में पूर्ण होता है। वह जो कुछ सोचता है, उसे उसी रूप में निष्पन्न कर लेता है। कार्य की निष्पत्ति के लिए न तो निरर्थक दौड़-धूप करनी पड़ती है और न ही वह किसी अवसर को खो सकता है। सहज-समर्थ व्यक्ति अपने काल को इतना उजागर कर देता है कि शताब्दियों-सहस्त्राब्दियों तक वह युग के चित्रपट पर मूर्तिमान रहता है। कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो बहुत ही साधारण व्यक्तित्व लेकर इस धरती पर आते हैं, किंतु अपने पुरुषार्थ से चमक जाते हैं। उन्हें व्यक्तित्व-विकास के लिए जो भी अवसर मिलता है वे मुक्तभाव से उसका उपयोग करते हैं। इनकी क्षमता अर्जित होती है, फिर भी कालांतर में वह स्वाभाविक-सी बन जाती है। ऐसे व्यक्ति भी अपने समाज और देश को दुर्लभ सेवाएं दे सकते हैं। इसीलिए ऐसे व्यक्तियों के लिए विद्वान डोनाल्ड एम. नेल्सन को कहना पड़ा कि हमें यह मानना बंद कर देना चाहिए कि ऐसा कार्य जिसे पहले कभी नहीं किया गया है, उसे किया ही नहीं जा सकता है। तीसरी पंक्ति में वे व्यक्ति आते हैं, जिनके पास न तो सहज क्षमता होती है और न वे क्षमता का अर्जन ही कर पाते हैं। किंतु स्वयं को सक्षम कहलाना चाहते हैं। कोई दूसरा उन्हें मान्यता दे या नहीं, वे अपने आप महत्वपूर्ण बन जाते हैं। इस आरोपित क्षमता से कभी कोई विकास हो, संभव नहीं लगता। 
ओढ़ी हुई क्षमता वाले व्यक्ति गरिमापूर्ण दायित्व को ओढ़कर भी उसको निभा नहीं सकते। विचारक जॉन वुडन ने कहा भी है कि अपने सम्मान के बजाय अपने चरित्र के प्रति अधिक गंभीर रहें। आपका चरित्र ही यह बताता है कि आप वास्तव में क्या हैं, जबकि आपका सम्मान केवल यही दर्शाता है कि दूसरे आपके बारे में क्या सोचते हैं। कोई आज छाया में इसलिए बैठा हुआ है, क्योंकि किसी ने काफी समय पहले एक पौधा लगाया था। ऐसे पौधे लगाने वालों के अनेक उदाहरणों से विश्व-इतिहास भरा पड़ा है। सिर्फ समझ का दरवाजा खोलने की जरूरत है। अगर समझपूर्वक जीना आ गया तो जीवन के प्रत्येक धरातल पर विकास की सरिता स्वत: प्रवाहित होने लगेगी। आनंद का दरिया लहराने लगेगा। जिंदगी का हर एक लम्हा नया अंदाज देकर जाएगा।

विहंगम योग

विहंगम योग आज सम्पूर्ण विश्व में आध्यात्मिक उपलब्धि के लिये ही नही, बल्कि स्वस्थ जीवनयापन के साधन के रुप में भी मान्यता एंव लोकप्रियता प्राप्त करता जा रहा है । वेदों के अनुसार योग का अन्तिम लक्ष्य आत्मा एंव परमात्मा का संयोग है । योग के इस श्रेष्ठतम रुप को विहंगम योग या ब्रह्मविद्या कहा जाता है ।


विहंगम योग क्या है?
 
योग-योग सब कोई कहै योग न जाना कोय ।अधर्व धार जब उधर्व चले योग कहावे सोय ॥विहंगम योग आज सम्पूर्ण विश्व में आध्यात्मिक उपलब्धि के लिये ही नही, बल्कि स्वस्थ जीवनयापन के साधन के रुप में भी मान्यता एंव लोकप्रियता प्राप्त करता जा रहा है । आज ज्यादातर भारतीय योगी आसन प्राणायाम सिखाने में लगे है, जो की योग के अंग मात्र है, सम्पूर्ण योग नहीं। हठयोग, मंत्रयोग, लययोग तथा राजयोग यह सब योग की कुछ प्रणालियां है, जो कि भारत मे प्रचलित है । ये सभी प्राकृतिक योग हैं, इनकी साधना शरीर, मन, बुद्धि तथा प्राण के प्राकृतिक धरातल पर होती है, जिससे इनकी शक्तियाँ विकसित हो जाती है । वेदों के अनुसार योग का अन्तिम लक्ष्य आत्मा एंव परमात्मा का संयोग है । योग के इस श्रेष्ठतम रुप को विहंगम योग या ब्रह्मविद्या कहा जाता है ।

योग का शाब्दिक अर्थ है जोड़ या सम्बन्ध, जोकि आत्मा व परमात्मा का ही होता है, क्योंकि जोड़ हमेशा चेतन से चेतन का होता है, जो नित्य रहता है, तथा आत्मा व परमात्मा दोनो ही चेतन है, इसलिए इन दोनो का योग ही नित्य व शाश्वत है । विहंगम योग तब घटित होता है, जब आत्मा मन व बुद्धि के बन्धन से मुक्त होकर अपना शुद्ध चेतन स्वरुप ग्रहण कर लेती है । परमात्मा शुद्ध चेतन तत्व है, और मन-बुद्धि की पहुँच से परे है क्योंकि मन व बुद्धि जङ है, तथा आत्मा की चेतना से सक्रिय होती है । अतः किसी जड़ तत्व की पहुँच चेतन तत्व तक नही हो सकती, उससे सम्बन्ध स्थापित होना तो दूर की बात है । अतः प्राकृतिक योग विहंगम योग की ऊँचाई को प्राप्त नही कर सकते । जिस प्रकार पक्षी पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण बल के विरुध हवा में विचरण करता है, उसी प्रकार आत्मा की चेतना अपने प्राकृतिक आधार अर्थात् शरीर, मन, बुद्धि को छोड़कर असीम चेतन मंडल में विचरण करती है । महर्षि पंतजलि ने चित्त की वृत्तियों के निरोध (मानसिक क्रियाओं का रुक जाना )को योग कहा है, यह राजयोग की परिभाषा है । राजयोग सारे प्राकृतिक योगों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है और विहंगम योग का प्राथमिक सोपान है । वास्तव में जहां राजयोग समाप्त हो जाता है वहीं से विहंगम योग का प्रारम्भ होता है ।
 


हमारे जीवन का मुख्य उद्देश्य.
 
लख चौरासी भोग के पौ पे अटके अ।य ।अबकी पासा ना पड़े तो फिर चौरासी जाय ॥ उपरोक्त दोहे का मतलब यह है कि चौरासी लाख योनियौँ को भोगने के बाद जब परमात्मा जीव पर दया करता है तो यह मानव जीवन प़दान करता है और इसका उद्देश्ये परमात्मा को प़ाप्त करना होता है । लेकिन मानव सँसार मे अ।ने के बाद परमात्मा को भूल जाता है और वह संसारिक सुखों को प़ाप्त करना ही अपने जीवन का  उद्देश्य.मान लेता है ।

अ।पने देखा होगा कि मानव हर वक्त किसी सुख या खुशी की तलाश मे रहता है ओर वह संसार में उपलब्घ वस्तुओं में उस सुख को तलाश करता है । इस के लिए वह संसार से उन सभी वस्तुऔ को जुटाता है जो उसे खुशी दे सके ओर सभी वस्तुएं थोड़ी देर के लिए ही सही खुशी प़दान करती है लेकिन यह खुशी सास्वत नही होती ओर अगले ही क्षण समाप्त हो जाती है । क्या अ।पने सोचा है, कि ए॓सा क्यों होता है ? क्यो कि अ।त्मा शरीर घारण करने से पहले जब परमात्मा के सानिघ्य मे रहता था तब वह परमानन्द का उपभोग करता था इसलिए वह उस अ।नन्द की तलाश इस नस्वर संसार मे करता है ओर उसे पाने के लिए संसारिक सुखों व सुविघाओं को इकठ्ठा करता है, लेकिन वह भुल जाता है कि संसार मे वह सुख नही है । इसी तरह जीव अपना पूरा जीवन बीता देता है लेकिन उस परमानन्द को प़ाप्त नही कर पाता है जिसका पान उसकी अ।त्मा पहले कर चुकी है, क्योंकि वह अ।नन्द इस संसार में नही है, वह तो परमात्मा के पास ही है ओर इसे पाने के लिए तो परमात्मा को पाना होगा ओर उसे पाने के लिए, वह विघा जानने की अ।वश्यकता होती है, जिससे उसे पाया जा सके ।

इस संसार में दो तरह की विघांए होती है पहली अपरा विघा व दूसरी परा विघा । संसार मे जीवन यापन के लिए अपरा विघा की अ।वश्यकता होती है (जिसमे वेद भी सम्लित है )तथा परमात्मा को पाने के लिए परा विघा की । यह भी पूण॔तः वैज्ञानिक विघा है, इसे मघु विघा या ब़म्ह विघा भी कहते हैं । सदगुरु इस विघा का अ।चाय॔ होता है, जो इस विघा को जानता है । अतः सदगुरु की खोज कर यह विघा सीखनी चाहिए ताकि अ।त्मा को जिस परमानन्द की तलाश है, वह उसे पा सके ।


 मानव शरीर के कार्य 

आज दैनिक जीवन में कम्प्यूटर का महत्व तो आप सभी जानतें हैं । इसका कार्य करने का तरीका भी जानते हैं । कम्प्यूटर में एक हार्ड डिस्क, रैम, रोम, प्रोसेसर इत्यादि सभी चीजें होती है तथा सभी का अपना कार्य होता है । कुछ इसी प्रकार हमारा शरीर भी कार्य करता है । उसमें भी मन, बुद्धि, चित व अहंकार ये चार अन्तःकरण है तथा पाँच कर्मेन्द्रियाँ क्रमशः हाथ, पाँव, पायू, उपस्थ, वाणी है तथा पाँच ही ज्ञानेन्द्रियाँ क्रमशः नाक, कान, जीभ, आँख व त्वचा है । इन सब का अपना कार्य है ।

चित मानव शरीर में स्थापित एक हार्ड डिस्क है जो हमारे सामने आने वाले हर दृश्य, संवाद तथा विचार को हमारे न चाहते हुए भी रिकार्ड कर लेता है । चित मे जो विचार संग्रहित होते है उन से ही हमारे संस्कार बनते हैं तथा उसी के अनुसार हम अपना कर्म करते हैं ।

जब भी हमें कोई कार्य करना होता है तो चित मे एक विचार उठता है जिसको हमारा मन पकड़ता है तथा विशलेषण करने के लिए बुद्धि को दे देता है और बुद्धि उसका विशलेषण करती है कि इस कार्य को कैसे सम्पन्न करना है और अपना निर्णय पुनः मन को दे देती है। मन उस निर्णय के अनुसार उस कार्य को सम्पन्न करने का आदेश इन्द्रियों को देता है और इन्द्रियों के माध्यम से वह कार्य सम्पन्न होता है और कार्य सम्पन्न होने के बाद यह विचार कि कार्य "मैने किया" यही अहंकार है । इस प्रकार जो कार्य किया गया उसका फल जैसा भी हो अच्छा या बुरा हमारी आत्मा को भोगना पड़ता है । जिसकी इस कार्य को करने मे कोई भुमिका नही होती है । इसका दोष केवल इतना होता है कि मन जिस शक्ति का उपयोग करता है वह आत्मा की होती है ।

यदि हम अपने मन पर नियन्त्रण स्थापित करलें तो यह कोई ऐसा काम नही करेगा जिसका फल अशुभ हो, लेकिन मन पर नियन्त्रण करना भी इतना आसान नही है । इसके लिए हमे ऐसे गुरु की खोज करनी होगी जो यह बताये की मन पर नियन्त्रण कैसे किया जा सकता है ।
इस तन में मन कहाँ बसे निकस जात किस और ।
गुरु गम हो तो परख ले नही तो गुरु कर ओर ॥
अथार्त इस शरीर में मन का निवास कहाँ है, यह ज्ञान हो जाने पर ही इसको वश मे किया जा सकता है, जब तक हमे इसके निवास का ज्ञान ही नही होगा हम उसे वश मे कैसे कर सकतें हैं । अतः हमारे गुरु वह हो जिन्हे यह पता हो कि इस शरीर में मन का निवास कहाँ हैं । उसके बाद वह हमें बतलाए कि इसे कैसे वश मे किया जाये ।

 आत्मा का शरीर

 यह तो हम सभी जानतें हैं कि मानव शरीर आकाश, वायु, पृथ्वी, अग्नि व जल इन पाँच तत्वों सें निर्मित है । लेकिन क्या यह पता है कि आत्मा के भी छः देह क्रमशः हँस देह, कैवल्य देह, महाकारण देह, कारण देह, सूक्ष्म देह तथा स्थूल देह होती है ।स्थूल शरीरःइसका निर्माण पाँच तत्वों आकाश, वायु, पृथ्वी, अग्नि व जल से होता है । इसमें पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ क्रमशः कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा तथा नासिका होती है, जो शब्द स्पर्श, रुप, स्वाद तथा गंध के सवेंद ग्रहण करती है और पाँच कर्मेन्द्रियाँ क्रमशः वाणी, हाथ, पांव, लिंग तथा गुदा होती हैं जो बोलने, पकड़ने, चलने, मूत्रत्याग एवं प्रजनन करने तथा मल त्याग करने की क्रियाँए सम्पन्न करती है । इनके अतिरिक्त चार भीतरी इन्द्रियाँ (अन्तःकरण;) - मन, बु‍ध्दि, चित्त तथा अंहकार होते है । पाँच प्राणः प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान व पाँच उप प्राणः कृकिल, कूर्म, नाग, धनंजय, देवदत्त होते हैं । इन सभी में मन महत्वपूर्ण है ।सुक्ष्म शरीरःयह स्थूल शरीर से भिन्न है क्योंकि इसमे केवल उन पाँच तत्वों का अभाव होता है जिनसे स्थूल शरीर का निर्माण होता है बाकी सभी इन्द्रियाँ, प्राण व अन्तः करण बीज रुप में विद्यमान रहतें हैं । कारण शरीरःकारण शरीर में मन, बुद्धि व प्राण का अभाव हो जाता है । आत्मा का यह शरीर कारण शरीर कहलाता है । यानि इसमें चित्त, अहंकार व प्रकृति के तीन गुण सत, रज व तम विद्यमान रहतें है।महाकारण शरीरःइस शरीर में प्रकृति के तीनो गुणो का भी अभाव हो जाता है और आत्मा असीमित बल व तेज को प्राप्त करता है ।कैवल्य शरीरःइस शरीर में आत्मा परमात्मा सें सयुंक्त होकर असीम आनंद को प्राप्त करता है और परमात्मा सें सयुंक्त होने के कारण परमात्मा के सारे गुणो को ऐसे ही धारण कर लेता है जिस प्रकार लोहा अग्नि के सम्पर्क में आने पर अग्नि के सारे गुणो को धारण कर लेता है और इस स्थिति में आत्मा में "मैं ब्रह्म हूँ " ऐसे भाव का उदय होता है । आत्मा का यह अहंकार भाव अज्ञानवश होता है और यह भाव ही आत्मा के पतन का मुख्य कारण है ।हँस शरीरःयह आत्मा की शुद्ध अवस्था है । जब आत्मा परमात्मा के सानिध्य में योग की उच्चतम अवस्था को प्राप्त कर अपने इस अहंकार भाव का त्याग करता है तो परमात्मा के साथ स्वामी सेवक का सम्बन्ध स्थापित होता है । आत्मा की यह अवस्था हँस अवस्था होती है । इस अवस्था को प्राप्त कर आत्मा परमानन्द के अनन्त सागर में गोते लगाता है ।
 आपको अपने विषय में पता है ..? अगर किसी से पुछा जाये कि तुम कौन हो ? वह अपना नाम बताएगा कि मैं अमुक व्यक्ति हूँ या अमुक जाति का हूँ लेकिन कभी आपने सोचा है कि हम रोज कहते है कि यह मेरा हाथ है, यह मेरा पाँव है, यह मेरा शरीर है तथा यह मेरी आँख है । कभी एकान्त में बैठकर सोचा है कि यह सब मेरा है लेकिन जो यह कह रहा है कि "यह मेरा है" वह कौन है ? क्या आपने कभी विचार किया है ? शायद नही किया होगा । क्योंकि आपको अपने लिए इतना समय ही कहाँ मिला होगा कि सोच सको कि मै कौन हूँ । आप इसे पढ़कर जरुर सोचना । एकान्त मैं बैठकर सोचने से जवाब मिलेगा तू आत्मा है, तू जीव है, जीवात्म है, तू चाहे किसी भी जाति का हो, कोई भी भाषा बोलता हो या किसी भी धर्म का हो इससे कोई फर्क नही पड़ता है ?
यह जो तेरा शरीर है वह तू नही है, इस स्थूल शरीर के अन्दर सुक्ष्म शरीर, कारण, महाकारण और कैवल्य शरीर भी तू नहीं है । मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार भी तू नही है । न ही तू दस इंन्द्रियां नेत्र, कान, त्वचा, नाक या जीभ ही है और न तू हाथ, पैर, पायु, उपस्थ एवं वाणी ही है । तू न प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान है और न कृकिल, कूर्म, नाग, धनंजय, देवदत्त ये पांच उप प्राण ही है ।तू न मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत, विशुद्ध, ब्रह्मरंध्राख्य, आज्ञाचक्र तथा सहस्त्रार चक्र ही है । तू अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय एवं आनंदमय कोश भी नहीं है । तू तो शुद्ध चेतन, नित्य- अनादि एकदेशीय सत्ता है । तेरा स्वरुप अत्यंत सूक्ष्म, परमाणु से भी छोटा है । तू सर्वत्र, सर्वव्यापी, सर्वज्ञ सर्व समर्थ नहीं है । तू आनंदाभिलाषी, सत्, चित् स्वरुप आत्मा है । तेरे अंदर अज्ञान का आविर्भाव होने से तू अपने आप को शरीर समझ रहा है । तू अपने आप को ज्ञानी, ध्यानी, पंडित, मौलवी, गुरु या इसी प्रकार का कुछ अन्य समझ रहा है । तू अपने आप को परमात्मा तक मान बैठा है । बता तो सही जिस परमात्मा ने इतनी विशाल, अनंत सृष्टि का निर्माण कर डाला है, जिसकी अनंतता का माप करते - करते तू थका जा रहा है तुझे इसकी थाह का पता नही चल रहा है, वही परमात्मा क्या तू है ? यह तेरे अज्ञान - भ्रम का परिणाम है कि तू नन्ही- सी सत्ता अपने - आपको समग्र सृष्टि में व्यापक ब्रह्म समझ रहा है । कैसी विडंबना है ? कितना धोखा है? तू मन के प्रभाव में आकर मन- मोदक से अपनी क्षुधा को तृप्त करना चाहता है । अभी भी अवसर है । तू सचेत हो जा । अपने आप को पहचान ले । अज्ञान, कर्म तथा जड़- चेतन की ग्रंथि से तू अपने- आप को मुक्त करले, पर यह होगा कैसे ? क्या अपने आप हो जाएगा ? क्या अपने जैसे ही बंधनग्रस्त जीवों को अपना गुरु बनाकर उनके द्वारा तू इन बंधनो से मुक्त हो पाएगा ? जो स्वयं बंधन में है, वह किसी दूसरे बंधनग्रस्त को बंधन से मुक्त कैसे करेगा ? अतः तू खोज कर उस गुरु की जो तुझे अपने आप को जानने का ज्ञान बता दे ।

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Sunday 4 December 2016

गाँधी की अहिंसा- एक छलावा

शायद इतिहास में यही पढ़ाया जाता है कि गाँधीजी. . .आइये आज जानते है उनकी कुछ महानताए

@ महानता 1. . . . . .शहीद-ए-आजम भगतसिंह को फांसी दिए जाने पर अहिंसा के महान पुजारी गांधी ने कहा था. . .‘हमें ब्रिटेन के विनाश के बदले अपनी आजादी नहीं चाहिए।’’ और आगे कहा. . .‘‘भगतसिंह की पूजा से देश को बहुत हानि हुई और हो रही है वहीं (फांसी) इसका परिणाम गुंडागर्दी का पतन है। ऐसे बदमाशो को फांसी शीघ्र दे दी जाए ताकि 30 मार्च से करांची में होने वाले कांग्रेस अधिवेशन में कोई बाधा न आवे" ।
अर्थात् गांधी की परिभाषा में किसी को फांसी देना हिंसा नहीं थी ।

@ महानता 2 . . . . . . इसी प्रकार एक ओर महान्क्रा न्तिकारी जतिनदास को जब आगरा में अंग्रेजों ने शहीद किया तो गांधी आगरा में ही थे और जब गांधी को उनके पार्थिक शरीर पर माला चढ़ाने को कहा गया तो उन्होंने साफ इनकार कर दिया अर्थात् उस नौजवान द्वारा खुद को देश के लिए कुर्बान करने पर भी गांधी के दिल में किसी प्रकार की दया और सहानुभूति नहीं उपजी, ऐसे थे हमारे अहिंसावादी गांधी।

@ महानता 3 . . . . . जब सन् 1937 में कांग्रेस अध्यक्ष के लिए नेताजी सुभाष और गांधी द्वारा मनोनीत सीतारमैया के मध्य मुकाबला हुआ तो गांधी ने कहा. . .यदि रमैया चुनाव हार गया तो वे राजनीति छोड़ देंगेलेकिन उन्होंने अपने मरने तक राजनीति नहीं छोड़ी जबकि रमैया चुनाव हार गए थे।

@ महानता 4 . . . . . .इसी प्रकार गांधी ने कहा था. . . . .“पाकिस्तान उनकी लाश पर बनेगा” लेकिन पाकिस्तानउनके समर्थन से ही बना । ऐसे थे हमारे सत्यवादी गांधी ।

@ महानता 5 . . . . . . इससे भी बढ़कर गांधी और कांग्रेस ने दूसरे विश्वयुद्ध में अंग्रेजों का समर्थन किया तो फिर क्या लड़ाई में हिंसा थी या लड्डू बंट रहे थे ? पाठक स्वयं बतलाएं ?

@ महानता 6 . . . . . .गांधी ने अपने जीवन में तीन आन्दोलन (सत्याग्रह) चलाए और तीनों को ही बीच में वापिस ले लिया गया फिर भी लोग कहते हैं कि आजादी गांधी ने दिलवाई।

@ महानता 7 . . . . .इससे भी बढ़कर जब देश के महान सपूत उधमसिंह ने इंग्लैण्ड में माईकल डायर को मारा तो गांधी ने उन्हें पागल कहा इसलिए नीरद चौधरी ने गांधी को दुनियां का सबसे बड़ा सफल पाखण्डी लिखा है।

@ महानता 8 . . . . . इस आजादी के बारे में इतिहासकार CR मजूमदार लिखते हैं “भारत की आजादी का सेहरा गांधी के सिर बांधना सच्चाई से मजाक होगा।

यह कहना कि सत्याग्रह व चरखे से आजादी दिलाई बहुत बड़ी मूर्खता होगी।
इसलिए गांधी को आजादी का ‘हीरो’ कहना उन क्रान्तिकारियों का अपमान है जिन्होंने देश की आजादी के लिए अपना खून बहाया। ”यदि चरखों की आजादी की रक्षा सम्भव होती है तो बार्डर पर टैंकों की जगह चरखे क्यों नहीं रखवा दिए जाते. . . . . .?

अगर आप सहमत है तो इसकी सच्चाई "Share" कर देश के सामने पाखण्डी को उजागर करें।. . . . . .जय हिन्द. . . . .जय भारत

शहीदे आज़म भगत सिंह को फांसी कि सजा सुनाई जा चुकी थी, इसके कारण हुतात्मा चंद्रशेखर आज़ाद काफी परेशान और चिंतित हो गए।
भगत सिंह की फांसी को रोकने के लिए आज़ाद ने ब्रिटिश सरकार पर दवाब बनाने का फैसला लिया इसके लिए आज़ाद ने गांधी से मिलने का वक्त माँगा लेकिन गांधी ने कहा कि वो किसी भीउग्रवादी से नहीं मिल सकते।
गांधी जानते थे कि अगर भगतसिंह और आज़ाद जैसे क्रन्तिकारी और ज्यादा दिन जीवित रह गए तो वो युवाओं के हीरो बन जायेंगे। ऐसी स्थिति में गांधी को पूछनेवाला कोई ना रहता।
हमने आपको कई बार बताया है कि किस तरह गांधी ने भगत सिंह को मरवाने के लिए एक दिन पहले फांसी दिलवाई। खैर हम फिर से आज़ाद कि व्याख्या पर आते है। गांधी से वक्त ना मिल पाने का बाद आज़ाद ने नेहरू से मिलने का फैसला लिया , 27 फरवरी 1931 के दिन आज़ाद ने नेहरू से मुलाकात की।
ठीक इसी दिन आज़ाद ने नेहरू के सामने भगत सिंह की फांसी को रोकने की विनती की।
बैठक में आज़ाद ने पूरी तैयारी के साथ भगत सिंह को बचाने का सफल प्लान रख दिया।
जिसे देखकर नेहरू हक्का -बक्का रह गया क्यूंकि इस प्लान के तहत भगत सिंह को आसानी से बचाया जा सकता था।
नेहरू ने आज़ाद को मदद देने से साफ़ मना कर दिया इस पर आज़ाद नाराज हो गए और नेहरू से जोरदार बहस हो गई फिर आज़ाद नाराज होकर अपनी साइकिल पर सवार होकर अल्फ्रेड पार्क की होकर निकल गए।
पार्क में कुछ देर बैठने के बाद ही आज़ाद को पोलिस ने चारो तरफ से घेर लिया। पोलिस पूरी तैयारी के साथ आई थी जेसे उसे मालूम हो कि आज़ाद पार्क में ही मौजूद है।
@ आखरी साँस और आखरी गोली तक वो जाबांज अंग्रेजो के हाथ नहीं लगा ,आज़ाद की पिस्तौल में जब तक गोलियाँ बाकि थी तब तक कोई अंग्रेज उनके करीब नहीं आ सका।
आखिरकार आज़ाद जीवन भरा आज़ाद ही रहा और उस ने आज़ादी में ही वीरगति को प्राप्त किया।
अब अक्ल का अँधा भी समझ सकता है कि नेहरु के घर से बहस करके निकल कर पार्क में 15 मिनट अंदर भारी पोलिस बल आज़ाद को पकड़ने के लिए बिना नेहरू की गद्दारी के नहीं पहुँचा जा सकता था।
नेहरू ने पोलिस को खबर दी कि आज़ाद इस वक्त पार्क में है और कुछ देर वहीं रुकने वाला है। साथ ही कहा कि आज़ाद को जिन्दा पकड़ने की भूल ना करें नहीं तो भगतसिंह
की तरफ मामला बढ़ सकता है।
लेकिन फिर भी कांग्रेस कि सरकार ने नेहरू को किताबो में बच्चो का क्रन्तिकारी चाचा नेहरू बना दिया और आज भी किताबो में आज़ाद को "उग्रवादी" लिखा जाता है।
लेकिन आज सच को सामने लाकर उस जाँबाज को आखरी सलाम देना चाहते हो तो इस पोस्ट को शेयर करके सच्चाई को सभी के सामने लाने में मदद करें।

. . . . . . . . . . वन्दे मातरम |

Tuesday 22 November 2016

नेहरू

    हमें नेहरुओं के बारे में कुछ नई सूचनाएं प्राप्त हुई हैं, जिसे हम
पाठकों को  बताना चाहते हैं। हम आप को सूचित कर चुके हैं कि जवाहर के
पितामह यानी दादा का नाम गंगाद्दर कौल था। मुगल राज्य में गंगाद्धर पुलिस
अधिकारी  था। वह नहर के किनारे रहता था, इसीलिए इस परिवार ने नेहरू नाम
धारण कर लिया। ऐसा बताया जाता है।
अब सूचना मिली है कि गंगधर नकली नाम था। जवाहर का पैतृक पितामह वास्तव
में मुगलवंशीय था। तब उसने कश्मीरी हिंदू नाम क्यों धारण किया? हमें जो
कारण बताए गए हैं, वे निम्नलिखित हैं,
1857 के गदर में अंग्रेज सभी जगह सभी मुगलों को कत्ल कर रहे थे। ताकि
भारतीय साम्राज्य का कोई दावेदार न बचे। उस समय हिंदू अंग्रेजों के
निशाने पर नहीं थे। जब तक कि, किसी विशेष परिस्थिति में, पिछले संबंधों
के कारण, कोई हिंदू मुगलों का पक्ष लेते हुए न पाया जाए। यही कारण था कि
मुसलमानों द्वारा हिंदुओं का नाम अपनाए जाने का उस समय चलन हो चुका था।
इसी कारण से, मालूम होता है कि, गंगाधर नाम भी किसी मुसलमान ने, अपनी जान
बचाने के लिए धारण कर लिया।
अपने आत्मचरित्र वर्णन में जवाहरलाल लिखता है कि उसने अपने पितामह का
मुगल राजवंशीय वेशभूषा में बना चित्र देखा था। अपने संस्मरण में जवाहर की
दूसरी बहन कृष्णा हथीसिंह ने लिखा है कि 1857 के गदर के पूर्व गंगाद्दर
दिल्ली का शहर कोतवाल था। लेकिन पूरी छानबीन करके लिखे गए अभिलेख
‘‘बहादुर शाह द्वितीय और 1857 का दिल्ली का गदर’’ महदी हुसेन लिखित, (
1987 का प्रकाशन, प्रकाशक एमएन प्रकाशन, डब्लू-112 ग्रेटर कैलाश भाग 1,
नईदिल्ली) के अनुसार 1857 के गदर के आसपास कार्यरत नगर कोतवाल दिल्ली का
नाम फैजुल्ला खान था। उसकी नियुक्ति नगर राज्यपाल और कोतवाल मिर्जा
मनीरुद्दीन के स्थान पर हुई थी। मिर्जा मनीरुद्दीन पर अंग्रेजों का जासूस
होने का आरोप था। इसी कारण से उसे सुल्तान ने नौकरी से निकाला था और
राज्यपाल का पद भी समाप्त कर दिया था। उस समय नायब कोतवाल श्री भाव सिंह
और लाहौरी गेट के थानेदार श्री काशीनाथ थे। गंगाधर नाम के व्यक्ति का
उपरोक्त अभिलेख में कहीं पता नहीं है। स्पष्टतः यह विषय किसी सुयोग्य
इतिहासकार द्वारा जांच करने के योग्य है।
1857 में दिल्ली पर कब्जे के बाद अंग्रेजों ने सारा दिल्ली खाली करा
लिया। दिल्ली के बाहर लोगों को छोलदारियों में रहना पड़ा। प्रत्येक घर की
अच्छी तरह तलाशी ली गई। जिसमें अकूत द्दन मिला। इसे अंग्रेजों ने जब्त कर
लिया। दिल्ली के बाहरी भागों की भी अंग्रेजों ने तलाशी ली। जो भी मुगल
मिला उसे अंग्रेजों ने मार डाला ताकि दिल्ली सिंहासन का कोई दावेदार न
बचे। लगभग दो माह बाद हिंदुओं को अपने घरों में वापस जाने की अनुमति दी
गई। बाद में मुसलमानों को अपने घरों में वापस जाने की अनुमति मिली।
19वीं सदी के उर्दू साहित्यकारों, विशेषकर ख्वाजा हसन निजामी के साहित्य
में, उस समय की मुगलों और मुसलमानों के दुखदायी जीवन परिपाटी का उल्लेख
मिलता है। साहित्यकारों ने यह भी बताया है कि किस प्रकार अपनी जान बचाने
के लिए मुगल और मुसलमान शहरों को छोड़ कर भाग रहे थे। जवाहर लाल ने भी
अपने आत्मचरित्र में लिखा है कि मुगलों से प्रभावित स्थान आगरा जाते हुए
रास्ते में अंग्रेजों ने मुगलवेशभूषा के कारण उसके दादा यानी पितामह के
परिवार को रोक लिया था। लेकिन कश्मीरी पंडित कहने पर उसके पितामह को जाने
दिया था। इस उद्धरण से इस बात को बल मिलता है कि हो न हो फैजुल्ला खान ही
गंगाद्दर कौल बन गया था। कुछ काल पहले राजकीय पद के लिए मुगल बताने के
लिए कश्मीर का सम्बन्द्द जोड़ा जाता था फिर हिंदू बताने के लिए कश्मीर का
सम्बन्द्द जोड़ा जाने लगा।
श्री टी.एल. शर्मा अपने गंभीर खोजपूर्ण लेख ‘‘हिंदू-मुस्लिम रिलेशन’’
पृष्ट 3-से-5 ( बी.आर. पब्लिशिंग कार्प, 29/9 शक्तिनगर, दिल्ली 7, 1987)
में मसीर उल उमारा के अद्दिकार से लिखते हैं,
‘‘मुगलकाल में अभारतीय वंशज का इतना महत्व था कि उच्च सरकारी पदों के लिए
विदेशी मूल के होने का झूठा प्रमाण गढ़ा जाता था। बहुधा वे कश्मीरी
लड़कियों से निकाह करते थे ताकि उनका रूपरंग तुर्कों और इरानियों के
वंशजों की भांति दिखाई दे।’’ ( आज, इस्लामी पाकिस्तान और बंगलादेश में
उच्च पदाधिकारी मुसलमान स्वयं को अरब मूल का बताते हैं।)
इस प्रकार फैजुल्ला खान ने अपना झूठा नाम ‘गंगाधर कौल’ रख लिया। नेहरू
शब्द भी प्रश्न पैदा करता है। यदि नेहरू उपाधि परशियन शब्द नहर के कारण
पड़ा तो वहां के अन्य निवासियों ने यह उपाधि  क्यों नहीं धारण किया?
मोतीलाल ने ही इस नाम को क्यों चुना?
ऐसा प्रतीत होता है कि दिल्ली से भागने के पश्चात मोतीलाल ने अपना
सम्माननीय पारिवारिक नाम ‘कौल’ छोड़ कर नेहरू रख लिया। जिससे इस परिवार के
वैवाहिक संबन्द्द कश्मीरी पंडितों से होने लगे। फिर भी यह महत्वपूर्ण बात
है कि इस परिवार के सभी नजदीकी संबंध  मुसलमानों से ही रहे। यहां तक कि
उनका खानसामा भी मुसलमान ही रहा। इतना ही नहीं नेहरू वंश हिंदुओं के साथ
असंतुष्टि अनुभव करते हैं। विशेषकर जवाहरलाल को हिंदू और हिंदी से विशेष
नफरत थी। फिर भी इस खान वंश को पूरे भारत में कश्मीरी पंडित कहा जाता है!
जो जवाहरलाल नेहरू यज्ञोपवीत नहीं पहनता था, संस्कृत की कौन कहे हिंदी तक
को पढ़ नहीं सकता था, इस देश के मूर्ख ब्राह्मण उसके पीछे लग गए। जब इस
देश की संस्कृति के सिरमौर ही उसके पीछे लग गए तो जो होना था हुआ। देश
बंटा और कंगाल हो गया। वैदिक संस्कृति मिट गई। इंदिरा के जवाहरलाल की
पुत्री होने पर भी संदेह है। जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे। ऐसा प्रतीत होता
है कि जवाहर लाल और इंदिरा दोनो अपने मुगल वंश के होने से परिचित थे।
सोनिया तक आते आते यह परिवार न तो मुगलवंशी रहा और न अंग्रेज ही रहा।
क्या   कारण है कि मुगल वंशीय इतिहास को दिल्ली में सुरक्षित रखा गया है।
मुगलों के नाम पर सड़कें हैं। नेशनल कौंसिल आफ एजुकेशनल रिसर्च एंड
ट्रेनिंग  यानी एनसीईआरटी मुगलकाल की आज भी प्रशंसक है। प्रसंगवश बता दें
कि 1947 के पूर्व की ऐतिहासिक पुस्तकें गुप्त काल को भारत का स्वर्णयुग
बताती हैं।
तत्कालीन भारत के पूर्व विदेशमंत्री नटवर सिंह ने इंदिरा के मुगलों से
संबन्‍ध  पर एक महत्वपूर्ण रहस्योद्घाटन किया है। अपनी पुस्तक ‘प्रोफाइल
एंड लेटर्स’, प्रकाशक स्टर्लिगं पब्लिशर्स, एल 10 ग्रीनपार्क एक्सटेंशन,
दिल्ली 16, में, जिसका निचोड़ दैनिक हिंदुस्तान टाइम्स संस्करण, नवंबर 16,
1997, में छपा था , श्री नटवर सिंह लिखते हैं कि तत्कालीन प्रधानमंत्री
इंदिरा सरकारी यात्रा पर 1968 में अफगानिस्तान गई थी। नटवर सिंह भारत के
विदेश मंत्रालय के विशेष नियुक्ति के कारण उनके साथ थे। दिन भर के ब्यस्त
कार्यक्रम के बाद इंदिरा सायं घूमना चाहती थी। कार में लंबे यात्रा के
बाद इंदिरा ने बाबर के कब्र को देखना चाहा। यह वीरान स्थान था। इंदिरा
बाबर के कब्र के पास गई। सम्मान में कब्र के सामने कुछ मिनटों तक सिर
झुकाया और मौन रही।
याद रखिए! बाबर मुगलवंश का संस्थापक था। यह यात्रा उसके कार्यक्रम में
उल्लिखित नहीं थी। अतः अफगान अधिकारियों ने इंदिरा को मना भी किया।
इंदिरा फिर भी नहीं मानी। इंदिरा ने नटवर सिंह से कहा कि आज हमने अपने
इतिहास को तरोताजा किया है। इसमें संदेह नहीं कि यदि इंदिरा गांधी
प्रधानमंत्री रहती तो अयोध्या के बाबरी मस्जिद कांड में मुलायमसिंह से
दसगुना अधिक नरसंहार हुआ होता, उसी प्रकार जिस प्रकार हरमंदर साहिब मंदिर
में 1984 में हुआ। याद रखें! गोरक्षा की मांग करने वाले संतों पर 7
नवंबर, 1966 को गोली इसी खूंखार औरत ने चलवाई थी।
इंदिरा का पुत्र राजीव गांधी , यद्यपि भारतीय या विदेशी इतिहास का जानकार
नहीं था, तथापि उसे मुगलवंशी होने पर काफी गर्व था। यद्यपि वह कहा करता
था कि उसका केाई निजी धर्म नहीं है और उसकी पत्नी कैथोलिक ईसाई है, तथापि
वह ब्यवहार में इस्लामी था। 15 अगस्त 1988 को उसने लाल किले के प्राचीर
से ललकारा था, ‘‘हमारा प्रयत्न इस देश केा 250 से 300 वर्ष पूर्व के काल
की बुलंदियों तक ले जाने के लिए होना चाहिए।’’ यही वह काल था जब जजिया
विशेषज्ञ औरंगजेब कत्ल किए गए हिंदुओं के सवा मन यज्ञोपवीत तौलने के बाद
ही पानी पीता था और मंदिर तोड़ने में जिसे महारत हासिल थी।
मोतीलाल-वैश्यालय मालिकः
मोती और लाल शब्‍दों का मतलब है। मोतीलाल का नाम नरायनदास या मदन मोहन
अथवा उस प्रकार का कोई और नहीं था। मोतीलाल में पंथनिरपेक्षता का बीज
पहले ही बोया गया था, जो कश्मीर की इस्लामिक उपज थी और ( वास्तव में जब
भी उपयुक्त लगा) उसने मिथ्या अपने ब्राह्मण होने का दंभ किया।
मोतीलाल अधिक पढ़ा लिखा नहीं था। कम उम्र में विवाह कर वह जीविका के लिए
इलाहाबाद ( अल्लाह के शहर) आ गया। हमें यह पता नहीं कि निश्चित रूप से वह
उस समय इलाहाबाद में कहां बसा। फिर भी हम विश्वास नहीं करते कि उसके बसने
की जगह वह मीरगंज रही होगी, जहां तुर्क और मुगल अपहृत हिंदू महिलाओं को
अपने मनोरंजन के लिए रखते थे। ( यहीं उर्दू की उत्पत्ति हुई)। हम ऐसा कह
रहे हैं क्यों कि अब हम अच्छी तरह जानते हैं कि मोतीलाल अपने दूसरे पत्नी
के साथ मीरगंज के रंडियों के इलाके में रहा। ( हम यह नहीं जानते कि
मोतीलाल दूसरी पत्नी को सचमुच ब्याह के लाया था अथवा दुराचार के लिए भगा
कर लाया था।)
पहली पत्नी पुत्र पैदा होने के समय मर गई। पुत्र भी मर गया। उसके तुरंत
बाद मोतीलाल कश्मीर लौट गया, वहां उसे गरीब परिवार की अत्यंत सुंदर उसकी
तथाकथित पत्नी मिली जिसे वह इलाहाबाद ले आया। वह मीर गंज में बस गया।
मोतीलाल ने सहायक जीविका के रूप में वैश्यालय चलाने का निश्चय किया।
क्यों कि उसके पास जीविका का अन्य साधन नहीं था। जो भी हो किसी का अपनी
(दूसरी नई पत्नी के साथ भी) वैश्याओं के मुहल्ले में रहना और अपने बच्चों
को वहीं पालना सुने? तो उसका मतलब क्या लगाएगा? हम शीघ्र ही  देखेंगे कि
जवाहर, मोतीलाल का दूसरा लड़का(?), जो जीवित बचा, बहुत दिनों तक उस मीरगंज
में पाला नहीं गया। लेकिन उसकी दोनों बहनों का विकास व पालन पोषण उसी
मीरगंज में वर्षों तक होता रहा।
दिन के समय मोतीलाल इलाहाबाद कचहरी में ‘मुख्तार’, जो वकील से छोटा पद
होता था, का कार्य करता था। उन दिनों मुख्तार को भी उच्च न्यायालय में
वकालत की अनुमति थी। फिर भी, इससे मोतीलाल की आय बहुत अल्प थी।
उसी उच्च न्यायालय में, एक प्रसिद्ध कानूनी सलाह देने वाला अन्य वकील भी
था। वह शिया मुसलमान मुबारक अली था। उसकी वकालत खूब चलती थी। इशरत मंजिल
नाम का उसका बड़ा मकान था। यह भी बताना आवश्यक है कि उस समय इलाहाबाद में
दो  इशरत मंजिल थे। दूसरे इशरत  मंजिल का मालिक अकबर इलाहाबादी था। इससे
डाक इधर-उधर  हो जाती थी। मुबारक अली का इशरत  मंजिल बाद में मोतीलाल को
बेच दिया गया; जिसका नाम बदल कर ‘आनन्द भवन’ हो गया। अब इसे ‘स्वराज्य
भवन’ कहा जाता है और राष्‍ट्र  की धरोहर है।
मेातीलाल मुबारक से मिलाः
शाम को, मोतीलाल अपनी वकालत के बाद घर लौटता था। अधिकतर, वह मीरगंज के
वैश्याओं के इलाके के अपने निवास में पैदल आता था। मुबारक अली, अन्य धनी
मुसलमानों की भांति, मौज मस्ती के लिए मीरगंज आता रहता था। मुबारक अपनी
बग्गी में आया करता था। मोतीलाल सदा मुबारक से संबंध  बनाना चाहता था और
एक शाम ऐसा हुआ कि मुबारक ने, जब वह न्यायालय परिसर में अपने बग्गी में
सवार हो रहा था, इस फटी पैंट पहने हिंदू को देखा। विनम्रता से  मोबारक ने
उसे अपनी बग्गी में बैठने के लिए पूछा। दोनों ही, वास्तव में, विभिन्न
कारणों से मीरगंज जा रहे थे, अतः मोतीलाल बग्गी में सामने बैठ गया।

Friday 22 July 2016

इतिहास का बड़ा झूठ


गांधी की हत्या से संबंधित मामले की सुनवाई के दौरान नाथूराम गोडसे ने अदालत में बयान दिया था-'हिंदुओं के उत्थान के लिए काम करने के दौरान मुझे लगा कि हिंदुओं के अधिकारों की रक्षा के लिए देश की राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा लेना जरूरी है। इसीलिए मैं संघ छोड़ हिंदू महासभा में शामिल हो गया'। यहां गांधी के हत्यारे ने स्वयं ही खुद को आरएसएस से अलग कर हिंदू महासभा से जोड़ा है। गांधीजी की हत्या उसने अकेले नहीं की। इस साजिश में शामिल रहे दिगंबर बादगे, जिसे बाद में क्षमदान दे दिया गया, ने भी आरएसएस पर अंगुली नहीं उठाई। इस स्वीकारोक्ति के दौरान गोडसे एक चलती फिरती लाश से अधिक कुछ नहीं था। उसकी नियति एक लिफाफे में सीलबंद हो गई थी। उस समय गोडसे पुणे में हिंदू महासभा समर्थक एक अखबार का संपादक था और उसका कथन अदालत में दिए लंबे चौड़े बयान का एक हिस्सा था। जाहिर है इस तथ्य का अपना महत्व है, क्योंकि गांधीजी की हत्या को आरएसएस से जोडऩे के लिए लगातार अभियान चलाया गया। आरएसएस के विरोध की इस कहानी की शुरुआत दिसंबर 1947 से ही हो गई थी जब पंडित नेहरू ने संघ को जहरीले वृक्ष की संज्ञा दे दी थी। हालांकि तब नेहरू ने इस तथ्य को नजरअंदाज कर दिया था कि विभाजन के दौरान हिंदुओं की सुरक्षा में ढेरों आरएसएस कार्यकर्ताओं की मौत हो गई थी और किस तरह आरएसएस कार्यकर्ता दिल्ली में कांग्रेस नेताओं के घरों की सुरक्षा में लाठी लेकर तैनात रहते थे।

गांधीजी की हत्या के कुछ ही दिनों बाद खबरों में गोडसे को आरएसएस का आदमी कहा जाने लगा। अखबारों में आरएसएस से उसके दुराव और हिंदू महासभा में जाने की बातें नदारद थीं। वास्तव में अपने जीवन के अंतिम कुछ वर्षों में गोडसे आरएसएस का कट्टर आलोचक बन गया था। आरएसएस और हिंदू महासभा के संबंध काफी जटिल रहे हैं। बीस के दशक से हिंदू राष्ट्रवादी आंदोलन का करीब से अध्ययन करें तो इन दोनों के बीच के फर्क को आसानी से समझ सकेंगे। आज भी हिंदू महासभा अपने बयानों में संघ की आलोचना करती है कि वह हिंदू समाज के लिए कुछ नहीं कर रहा है। संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार हिंदू महासभा या कांग्रेस, सभी से अच्छे रिश्ते रखने के हिमायती थे। दोनों समूहों में ढेरों नेता उनके दोस्त थे। तब संघ हमेशा चौकस रहता और कोई टिप्पणी करने से बचता, जबकि नागपुर में हिंदू महासभा की पहचान संघ की खिल्ली उड़ाने वाले संगठन के रूप में थी। हालांकि तब इस बात की थोड़ी उम्मीद थी कि संघ हिंदू महासभा के कैडर के रूप में काम करेगा और अपने राजनीतिक हितों की पूर्ति करेगा, लेकिन डॉ. हेडगेवार ने पूरी विनम्रता के साथ इसका विरोध किया। डॉ. हेडगेवार इस उद्देश्य के प्रति दृढ़ थे कि संघ का काम सिर्फ हिंदू समाज को संगठित करना होगा। इसके बाद कुछ हताश लोगों ने संघ से दूरी बना ली, लेकिन इससे संघ के कदम नहीं लडख़ड़ाए। वह निरंतर आगे बढ़ता रहा।
गांधीजी की हत्या के बाद गुरु गोलवलकर द्वारा समय-समय पर सरदार पटेल और पंडित नेहरू को पत्र लिखे गए। इनमें उन्होंने गांधीजी की हत्या को विकृत आत्मा द्वारा किया गया घृणित कृत्य बताया। 30 जनवरी, 1948 को गुरुजी ने आरएसएस के लिए 13 दिनों के शोक दिवस की घोषणा की और सामान्य कामकाज को निलंबित कर दिया। बाद में ऐसा किसी सरसंघचालक की मृत्यु होने पर भी नहीं हुआ। कुछ समय बाद गुरुजी को गिरफ्तार कर लिया गया। बताया जाता है कि इसके एक महीने के अंदर ही करीब 20 हजार स्वयंसेवकों की गिरफ्तारी हुई थी। उसके बाद से अत्याचार का एक चक्र शुरू हो गया। यहां तक कि बच्चों को भी नहीं बख्शा गया। इसी साल अप्रैल में मैं केरल के एक 84 साल के स्वयंसेवक से मिली। जब गांधीजी की हत्या हुई तो वह बहुत छोटे थे। उन्होंने मुझे बताया कि जब वह स्कूल में थे तब कई छात्रों को शाखाओं में गिरफ्तार किया गया, उनके घरों की तलाशी ली गई और गांधी के हत्यारे होने का आरोप लगाया गया। गांधीजी की हत्या के बाद के कठिन दिनों में जिस तरह की कहानियां गढ़ी गईं उससे यह विश्वास होने लगा कि उनकी हत्या के पीछे आरएसएस है। 27 फरवरी, 1948 को पंडित नेहरू को लिखे अपने पत्र में सरदार पटेल ने जांच के आधार पर आरएसएस को दोषमुक्त बताया था, लेकिन प्रतिबंध को नहीं हटाया गया।
समय बीतने के साथ आरएसएस को झुकाने के लिए इसे राजनीतिक मौके के रूप में भुनाया जाने लगा। कांग्रेस द्वारा आरएसएस के उग्र विरोध के संबंध में गुरुजी द्वारा लिखे पत्र के जवाब में सरदार पटेल के 11 सितंबर, 1948 के पत्र का प्राय: जिक्र किया जाता है कि उस समय गुरुजी आरएसएस से प्रतिबंध हटाने के लिए कुछ समझौते करने की कोशिश कर रहे थे। पत्र की अन्य बातें जो नहीं कहीं जाती हैं उन पर ध्यान देना जरूरी है। सरदार पटेल ने गुरुजी को सुझाव दिया था कि आरएसएस अपनी देशभक्ति का कारवां तभी आगे बढ़ा सकता है जब वह कांग्रेस में शामिल हो जाए। अलग रहकर और विरोध कर उसे कुछ नहीं मिलेगा। जाहिर है इस तरह आरएसएस को धमकाने की कोशिश हुई। आज भी आरएसएस कार्यकर्ता की सबसे बड़ी पहचान उनका अनुशासन है और किसी भी पार्टी के लिए वह पूंजी होगा। कांग्रेस के अपने सेवा दल ने अपनी अनुशासनहीनता के चलते सरदार पटेल को हताश कर दिया था। पटेल आरएसएस को प्रतिबंधित करने की घटना से पाक साफ बाहर निकलने के लिए एक सम्मानजनक रास्ता खोज रहे थे, लेकिन गुरुजी डॉ. हेडगेवार के बनाए रास्ते से तनिक भी विचलित नहीं हुए। उन्होंने एक सांस्कृतिक संगठन के रूप में आरएसएस की पहचान बनाए रखी और कहा कि यह स्थिति (आरएसएस का राजनीतिक संगठन बनना) असहनीय है और जो लोग इसमें शामिल हैं उन्हें इसका हक नहीं है। उसके बाद तनाव और गहरा गया। प्रतिबंध बरकरार रहा और गुरुजी को गिरफ्तार कर लिया गया। उस समय आरएसएस ने नौ दिसंबर, 1948 को सत्याग्रह कर इसका विरोध किया। परिणामस्वरूप सरकार वार्ता की मेज पर आई। तमाम किंतु-परंतु के बाद सरदार पटेल ने ड्राफ्ट स्वीकार किया और जुलाई 1949 में आरएसएस पर से प्रतिबंध हटाया गया। आज भी संघ में दो चीजें नहीं बदली हैं। एक संघ की गतिविधियों में किशोरावस्था के पूर्व ही भागीदारी और दूसरा सरसंघचालक के चुनाव का तरीका।
जाहिर है गांधीजी की हत्या में आरएसएस का हाथ होने का आरोप साबित करने में तत्कालीन सरकार विफल रही थी। हाल ही में आरएसएस को गांधीजी का हत्यारा बताए जाने के लिए राहुल गांधी को सुप्रीम कोर्ट से फटकार मिली है। कोर्ट ने कहा है कि गलत आरोप के लिए या तो वह माफी मांगें या मुकदमे का सामना करें। आश्चर्यजनक है कि राहुल गांधी ने जांच आयोग की रिपोर्ट को दरकिनार करते हुए गलत तथ्य पर कायम रहने का निर्णय किया है। पटेल की बातें रिकॉर्ड में हैं और कोर्ट के फैसलों तक में आरएसएस को गांधी की हत्या का दोषी नहीं माना गया है। इसी तरह के आरोप में एक अखबार ने आरएसएस से 2003 में बिना किसी शर्त माफी मांगी थी। दरअसल इसके लिए राहुल दोषी नहीं हैं। यह सब उनके सलाहकारों की कारगुजारी कही जा सकती है। अब इस मुकदमे के शुरू होने से दो ही समूह प्रसन्न होंगे। एक राहुल गांधी के वकील और दूसरा आरएसएस, जिसे निर्णायक खंडन के लिए लंबे समय से इंतजार है।

Tuesday 5 April 2016

गाँधी वध क्यों ? हुतात्मा गोडसे के दिन पर विशेष

30 जनवरी सन् 1948 ई. की शाम को जब गाँधी जी एक प्रार्थना सभा में भाग लेने जा रहे थे, तब राष्ट्रवादी नाथूराम गोडसे ने गोली मारकर मोहनदास गाँधी का वध कर दिया था । नाथूराम गोडसे ने मोहनदास गाँधी के वध करने के 150 कारण न्यायालय के सामने बताये थे। नाथूराम गोडसे ने जज से आज्ञा प्राप्त कर ली थी कि वे अपने बयानों को पढ़कर सुनाना चाहते है और उन्होंने वो 150 बयान माइक पर पढ़कर सुनाए थे। उनमे से कुछ कुछ कारण ये भी थे -
1. अमृतसर के जलियाँवाला बाग़ गोली काण्ड (1919) से समस्त देशवासी आक्रोश में थे तथा चाहते थे कि इस नरसंहार के नायक जनरल डायर पर अभियोग चलाया जाए। गान्धी जी ने भारतवासियों के इस आग्रह को समर्थन देने से मना कर दिया। इसके बाद जब उधम सिंह ने जर्नल डायर की हत्या इंग्लैण्ड में की तो, गाँधी ने उधम सिंह को एक पागल उन्मादी व्यक्ति कहा, और उन्होंने अंग्रेजों से आग्रह किया की इस हत्या के बाद उनके राजनातिक संबंधों में कोई समस्या नहीं आनी चाहिए |
2. भगत सिंह व उसके साथियों के मृत्युदण्ड के निर्णय से सारा देश क्षुब्ध था व गान्धी जी की ओर देख रहा था कि वह हस्तक्षेप कर इन देशभक्तों को मृत्यु से बचाएं, किन्तु गान्धी जी ने भगत सिंह की हिंसा को अनुचित ठहराते हुए जनसामान्य की इस माँग को अस्वीकार कर दिया। क्या आश्चर्य कि आज भी भगत सिंह वे अन्य क्रान्तिकारियों को आतंकवादी कहा जाता है।
3. 6 मई 1946 को समाजवादी कार्यकर्ताओं को अपने सम्बोधन में गान्धी जी ने मुस्लिम लीग की हिंसा के समक्ष अपनी आहुति देने की प्रेरणा दी।
4. मोहम्मद अली जिन्ना आदि राष्ट्रवादी मुस्लिम नेताओं के विरोध को अनदेखा करते हुए 1921 में गान्धी जी ने खिलाफ़त आन्दोलन को समर्थन देने की घोषणा की। तो भी केरल के मोपला मुसलमानों द्वारा वहाँ के हिन्दुओं की मारकाट की जिसमें लगभग 1500 हिन्दु मारे गए व 2000 से अधिक को मुसलमान बना लिया गया। गान्धी जी ने इस हिंसा का विरोध नहीं किया, वरन् खुदा के बहादुर बन्दों की बहादुरी के रूप में वर्णन किया।
5. 1926 में आर्य समाज द्वारा चलाए गए शुद्धि आन्दोलन में लगे स्वामी श्रद्धानन्द की अब्दुल रशीद नामक मुस्लिम युवक ने हत्या कर दी, इसकी प्रतिक्रियास्वरूप गान्धी जी ने अब्दुल रशीद को अपना भाई कह कर उसके इस कृत्य को उचित ठहराया व शुद्धि आन्दोलन को अनर्गल राष्ट्र-विरोधी तथा हिन्दु-मुस्लिम एकता के लिए अहितकारी घोषित किया।
6. गान्धी जी ने अनेक अवसरों पर छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप व गुरू गोविन्द सिंह जी को पथभ्रष्ट देशभक्त कहा।
7. गान्धी जी ने जहाँ एक ओर कश्मीर के हिन्दु राजा हरि सिंह को कश्मीर मुस्लिम बहुल होने से शासन छोड़ने व काशी जाकर प्रायश्चित करने का परामर्श दिया, वहीं दूसरी ओर हैदराबाद के निज़ाम के शासन का हिन्दु बहुल हैदराबाद में समर्थन किया।
8. यह गान्धी जी ही थे, जिसने मोहम्मद अली जिन्ना को कायदे-आज़म की उपाधि दी।
9. कॉंग्रेस के ध्वज निर्धारण के लिए बनी समिति (1931) ने सर्वसम्मति से चरखा अंकित भगवा वस्त्र पर निर्णय लिया किन्तु गाँधी जी कि जिद के कारण उसे तिरंगा कर दिया गया।
10. कॉंग्रेस के त्रिपुरा अधिवेशन में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को बहुमत से कॉंग्रेस अध्यक्ष चुन लिया गया किन्तु गान्धी जी पट्टभि सीतारमय्या का समर्थन कर रहे थे, अत: सुभाष बाबू ने निरन्तर विरोध व असहयोग के कारण पदत्याग कर दिया।
11. लाहोर कॉंग्रेस में वल्लभभाई पटेल का बहुमत से चुनाव सम्पन्न हुआ किन्तु गान्धी जी की जिद के कारण यह पद जवाहरलाल नेहरु को दिया गया।
12. 14-15 जून 1947 को दिल्ली में आयोजित अखिल भारतीय कॉंग्रेस समिति की बैठक में भारत विभाजन का प्रस्ताव अस्वीकृत होने वाला था, किन्तु गान्धी जी ने वहाँ पहुंच प्रस्ताव का समर्थन करवाया। यह भी तब जबकि उन्होंने स्वयं ही यह कहा था कि देश का विभाजन उनकी लाश पर होगा।
13. मोहम्मद अली जिन्ना ने गान्धी जी से विभाजन के समय हिन्दु मुस्लिम जनसँख्या की सम्पूर्ण अदला बदली का आग्रह किया था जिसे गान्धी ने अस्वीकार कर दिया।
14. जवाहरलाल की अध्यक्षता में मन्त्रीमण्डल ने सोमनाथ मन्दिर का सरकारी व्यय पर पुनर्निर्माण का प्रस्ताव पारित किया, किन्तु गान्धी जो कि मन्त्रीमण्डल के सदस्य भी नहीं थे ने सोमनाथ मन्दिर पर सरकारी व्यय के प्रस्ताव को निरस्त करवाया और
13 जनवरी 1948 को आमरण अनशन के माध्यम से सरकार पर दिल्ली की मस्जिदों का सरकारी खर्चे से पुनर्निर्माण कराने के लिए दबाव डाला।
15. पाकिस्तान से आए विस्थापित हिन्दुओं ने दिल्ली की खाली मस्जिदों में जब अस्थाई शरण ली तो गान्धी जी ने उन उजड़े हिन्दुओं को जिनमें वृद्ध, स्त्रियाँ व बालक अधिक थे मस्जिदों से से खदेड़ बाहर ठिठुरते शीत में रात बिताने पर मजबूर किया गया।
16. 22 अक्तूबर 1947 को पाकिस्तान ने कश्मीर पर आक्रमण कर दिया, उससे पूर्व माउँटबैटन ने भारत सरकार से पाकिस्तान सरकार को 55 करोड़ रुपए की राशि देने का परामर्श दिया था। केन्द्रीय मन्त्रीमण्डल ने आक्रमण को देखते हुए, यह राशि देने को टालने का निर्णय लिया किन्तु गान्धी जी ने उसी समय यह राशि तुरन्त दिलवाने के लिए आमरण अनशन किया- फलस्वरूप यह राशि पाकिस्तान को भारत के हितों के विपरीत दे दी गयी।
17.गाँधी ने गौ हत्या पर पर्तिबंध लगाने का विरोध किया।
18. द्वितीया विश्वा युध मे गाँधी ने भारतीय सैनिको को ब्रिटेन का लिए हथियार उठा कर लड़ने के लिए प्रेरित किया, जबकि वो हमेशा अहिंसा की पीपनी बजाते है.
19. क्या ५०००० हिंदू की जान से बढ़ कर थी मुसलमान की ५ टाइम की नमाज़? विभाजन के बाद दिल्ली की जमा मस्जिद मे पानी और ठंड से बचने के लिए ५००० हिंदू ने जामा मस्जिद मे पनाह ले रखी थी...मुसलमानो ने इसका विरोध किया पर हिंदू को ५ टाइम नमाज़ से ज़यादा कीमती अपनी जान लगी.. इसलिए उस ने माना कर दिया. उस समय गाँधी नाम का वो शैतान बरसते पानी मे बैठ गया धरने पर की जब तक हिंदू को मस्जिद से भगाया नही जाता तब तक गाँधी यहा से नही जाएगा. फिर पुलिस ने मजबूर हो कर उन हिंदू को मार मार कर बरसते पानी मे भगाया. और वो हिंदू - गाँधी मरता है तो मरने दो - के नारे लगा कर वाहा से भीगते हुए गये थे. रिपोर्ट --- जस्टिस कपूर. सुप्रीम कोर्ट. फॉर गाँधी वध क्यो ?
२०. भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को 24 मार्च 1931 को फांसी लगाई जानी थी, सुबह करीब 8 बजे। लेकिन 23 मार्च 1931 को ही इन तीनों को देर शाम करीब सात बजे फांसी लगा दी गई और शव रिश्तेदारों को न देकर रातोंरात ले जाकर ब्यास नदी के किनारे जला दिए गए। असल में मुकदमे की पूरी कार्यवाही के दौरान भगत सिंह ने जिस तरह अपने विचार सबके सामने रखे थे और अखबारों ने जिस तरह इन विचारों को तवज्जो दी थी, उससे ये तीनों, खासकर भगत सिंह हिंदुस्तानी अवाम के नायक बन गए थे। उनकी लोकप्रियता से राजनीतिक लोभियों को समस्या होने लगी थी।
उनकी लोकप्रियता महात्मा गांधी को मात देनी लगी थी। कांग्रेस तक में अंदरूनी दबाव था कि इनकी फांसी की सज़ा कम से कम कुछ दिन बाद होने वाले पार्टी के सम्मेलन तक टलवा दी जाए। लेकिन अड़ियल महात्मा ने ऐसा नहीं होने दिया। चंद दिनों के भीतर ही ऐतिहासिक गांधी-इरविन समझौता हुआ जिसमें ब्रिटिश सरकार सभी राजनीतिक कैदियों को रिहा करने पर राज़ी हो गई। सोचिए, अगर गांधी ने दबाव बनाया होता तो भगत सिंह भी रिहा हो सकते थे क्योंकि हिंदुस्तानी जनता सड़कों पर उतरकर उन्हें ज़रूर राजनीतिक कैदी मनवाने में कामयाब रहती। लेकिन गांधी दिल से ऐसा नहीं चाहते थे क्योंकि तब भगत सिंह के आगे इन्हें किनारे होना पड़ता।
उपरोक्त परिस्थितियों में नथूराम गोडसे ने गान्धी का वध कर दिया। न्यायलय में गोडसे को मृत्युदण्ड मिला किन्तु गोडसे ने न्यायालय में अपने कृत्य का जो स्पष्टीकरण दिया उससे प्रभावित होकर न्यायधीश श्री जे. डी. खोसला ने अपनी एक पुस्तक में लिखा- "नथूराम का अभिभाषण दर्शकों के लिए एक आकर्षक दृश्य था। खचाखच भरा न्यायालय इतना भावाकुल हुआ कि लोगों की आहें और सिसकियाँ सुनने में आती थीं और उनके गीले नेत्र और गिरने वाले आँसू दृष्टिगोचर होते थे। न्यायालय में उपस्थित उन मौजूद आम लोगों को यदि न्यायदान का कार्य सौंपा जाता तो मुझे तनिक भी संदेह नहीं कि उन्होंने अधिकाधिक सँख्या में यह घोषित किया होता कि नथूराम निर्दोष है।"