Friday 27 June 2014

सरकार पूर्ण प्रतिबद्धता से काम कर रही है और विरोधी अपनी खीझ छिपा नहीं पा रहे हैं

केन्द्र सरकार भारत की जनता की अपनी सरकार है। जनता ने बहुत सोच समझ कर राजनीतिक अराजकता मिटाने के लिए एक ऐसी शख्सियत पर विश्वास किया है, जिसे उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी मौत का सौदागर, राक्षस, कसाई, रावण आदि अलंकारों से अलंकृत करते थे। सभी इस जननेता की राह में अवरोध खड़े करने के लिए एक हो गये थे, किन्तु उस समय उनके दिलों पर सांप लौट गया, जब संसद में उन्होंने सुना था, ‘ मैं नरेन्द्र दामोदर मोदी, ईश्वर की शपथ लेता हूं कि प्रधानमंत्री के रुप में, मै………………’ वे यह सुन कर तिलमिला गये थे। कई दिनों तक ये शब्द उनके कानों में गर्म शीशे की तरह उतरते रहे। उन्हें किसी भी तरह यह स्वीकार्य नहीं था कि नरेन्द्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बन जाय। राजनीतिक नफरत की यह पराकाष्ठा थी। लोकतंत्र में किसी की व्यक्तिगत उपेक्षा, तिरस्कार और घृणा का कोई स्थान नहीं होता। सता पर किसी पार्टी और व्यक्ति का विशेषाधिकार नहीं रहता। जनता जिसे चाहेगी सता सौंपेंगे। जनता के निर्णय को शिरोधार्य करने के अलावा कोई विकल्प ही शेष नही रहता।
जो शासक बन कर भारत पर राज कर रहे थे और भविष्य में किसी की भी चुनौती जिन्हें स्वीकार नहीं थी, उनके अभिमान को जनता ने चूर-चूर कर दिया। तुष्टीकरण, धर्मनिरपेक्षता और जातीय संकीर्णता का सहारा ले, जो राजनीतिक रोटियां सेक रहे थे, उनकी रोटियां जल गयी। जनता ने उन्हें आकाश से उठा कर जमीन पर पटक दिया। जनादेश ने स्पष्ट संकेत दे दिया- हमे शासक नहीं, सेवक चाहिये। धर्म और जाति की राजनीति नहीं, सुशासन चाहिये। सरकार कुछ नेताओं और अफशरों की निजी धरोहर नहीं होती, लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकार जनता की होती है, जनता ही मालिक होती है, जनता के लिए कार्य करना ही सरकार का दायित्व रहता हे।
बहरहाल अजगर की तरह अपनी कुडली में सारी फाईलें दबा निश्चेष्ट पड़़ी सरकार के स्थान पर कठोर परिश्रम करने वाली सरकार काम कर रही है। भारत को पहला ऐसा प्रधानमंत्री मिला है, जो अठारह घंटे काम करता है। उनके पास अपना निजी कुछ नहीं है। उन्होंने अपना सारा समय और शक्ति देश को समर्पित कर दी है। सारे मंत्रालय के कार्यालय प्रातः जल्दी खुलते हैं और देर रात तक काम होता है। एक कारपोरेट आॅफिस की तरह सिर्फ काम को ही अब पूजा जाता है। जो कार्यालय पहले भ्रष्टाचार के अड्डे थे, जहां बड़े-बड़े घोटाले करने की रणनीति बनायी जाती थी, वहां अब देश की जनता की भलाई के लिए नीतियां बनायी जा रही है। पहले मंत्री और नौकरशाह इस बात का चिंतन करते थे कि कैसे अपने लिए अकूत धन का जुगाड़ किया जा सके, किन्तु अब यह चिंतन किया जा रहा है कि कैसे देश की खस्ता हालत को सुधारा कर अर्थव्यवस्था को पटरी पर ला, विकास के पथ पर आगे बढ़ाया जा सके।
जब वे सत्ता में थे या सत्ता से जुडे़ हुए थे, नरेन्द्र मोदी की बातों की खिल्ली उड़या करते थे, किन्तु अब वे सत्ता से बाहर हैं, तो मोदी सरकार के देश हित में लिये गये निर्णयों के विरुद्ध जनता को आक्रोशित करने का प्रयास कर रहे हैं। उदाहरण के लिए दस सालों में पिछली सरकार यदि प्रतिवर्ष दो प्रतिशत रेल किराया बढ़ाती, तो बीस प्रतिशत रेल किराया वैसे भी बढ़ जाता। अब यदि नयी सरकार ने एक साथ चैदह प्रतिशत किराया बढ़ा दिया, तो इसमें इतना हाय तौबा करने की कहां आवश्यकता है ? क्या उन्हें यह मालूम नहीं है रेलवे को यदि छब्बीस हजार करोड़ का घाटा हो रहा है, उसका भार भी तो भारत की जनता को ही उठाना पड़ रहा है, जबकि सिद्धान्तः सारा भार रेल में यात्रा करने वाले यात्रियों पर ही डाला जाना चाहिये, पूरे देश के नागरिकों पर नहीं, जो रेल में यात्रा ही नहीं करते हैं।  जो सिर्फ अपने राजनीतिक स्वार्थ को ही ज्यादा महत्व देते हैं, उनकी कोई नीति नहीं होती। वे देशहित के बजाय अपने हित पर ज्यादा ध्यान देते हैं। सरकार के विरुद्ध बौखलाहट और खीझ जताने के लिए वे जनता को जानबूझ कर भ्रमित करते हैं।
जबकि पिछली सरकार ने रण छोड़ कर भाग रही सेना की तरह सब कुछ तबाह कर दिया है। सड़ी हुई व्यवस्था नयी सरकार को विरासत में मिली है। इस पूरी व्यवस्था को सुधारना और उसे चुस्त-दुरुस्त करना काफी चुनौतीपूर्ण काम है। पूर्व प्रधानमंत्री का कार्यालय भ्रष्टाचार की गंगोत्री बन गया था, तब कैसे उस सरकार से आशा कर सकते थे कि पूरे देश में फैले भ्रष्टचार को समाप्त करने के लिए सरकार गम्भीर नीतियां बनायेगी ?
एक भ्रष्ट सरकार की जो सूत्रधार थी, उनकी बौखलाहट इसलिए बढ़ रही है, क्योंकि सरकार बदल जाने से उनके हाथ में कुछ नहीं रहा है। अब उनके पापों को छुपाने के लिए सीबीआई जैसी संस्था पर उनका नियंत्रण नहीं रहा है। गंदगी साफ करते-करते नयी सरकार को ऐसे तथ्य हाथ लग सकते हैं, जिससे देश को चलाने का अधिकार लें, जो उसे गर्त में गिराने का उपक्रम कर रहे थे, उनकी असली सूरत जनता के सामने आ जायेगी।
जिस सरकार को बने जुम्मे-जुम्मे चार दिन हुए हैं, उस सरकार के निर्णयों पर जनता को उकसाना, टीवी के चेनलों पर आ कर दरबारियों द्वारा एक जवाबदेय और ईमानदार सरकार पर व्यंगात्मक लहजे से बयान देना, दरअसल पिछली सरकार के संचालकों की खीझ और हताशा को प्रकट कर रहा है। देशहित जिनके लिए सर्वोपरी नहीं है, वे किसी बहाने अपनी खाल बचाने का प्रयास कर रहे हैं। यदि अल्पमत सरकार बनती तो उस पर वे आसानी से अंकुश लगा सकते थे, किन्तु पूर्ण बहुमत वाली सरकार का वे कुछ बिगाड़ भी तो नहीं सकते।
नयी सरकार को टीवी चेनलों की संदिग्ध भूमिका की भी जांच करनी चाहिये। देश के वातावरण को दूषित करने में टीवी चेनल महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। केजरीवाल को हीरो इन्हीं चेनलों ने बनाया था, जिससे उन्हें देश विदेश की भारत विरोधी ताकतों से भारी भरकम चंदा मिला था। कुछ टीवी चेनल नरेन्द्र मोदी को सत्ता में नहीं आने देने के दुष्प्रचार में पूर्व सत्ताधारी पार्टी के सहयोगी बने हुए थे। ये टीवी चेनल अब भी नही सुधरें हैं। सरकार को अलोकप्रिय बनाने की नीति अपनाये हुए हैं। रेल किराये में बढ़ात्तरी पर जनता के समक्ष स्वस्थ चिंतन प्रस्तुत करने के बजाय बात का बतंगड़ करने और सरकार को बदनाम करने के लिए उन पिटे हुए राजनेताओं के बयान बार-बार टीवी पर दोहरा रहे हैं, जिन्हें जनता ने पूर्णतया तिरस्कृत कर दिया है। सरकार देशद्रोही टीवी चेनलों के मालिकों के विरुद्ध शिकंजा कसे, उसके पहले जनता को भी इन्हें बहिस्कृत करना चाहिये, ताकि ये अपने मन की इस भ्रांति को निकाल दें कि भारत मूर्खों का देश है, जनता को झूठे प्रचारतंत्र के सहारे आसानी से मूर्ख बनाया जा सकता है।

कठोर और कडवे फैंसले का चाबुक जनता पर क्यों ? अपराधियों पर क्यों नहीं ?

मानसून कमजोर रहने की सिर्फ भविष्यवाणी की गयी है। मानसून आ कर गया नहीं है। फसल कितनी कमजोर होगी, इसका भी अनुमान नहीं है, फिर यकायक महंगाई क्यों बढ़ गयी ? क्योंकि ज्यादा मुनाफाखोरी के चक्कर में जमाखारी होने लगी। जिन लोगों के लिए सामाजिक हितों के बजाय अपना स्व हित सर्वोपरी होता है, जो अपने तुच्छ स्वार्थ के लिए समाज का शोषण करते हैं, वे सामाजिक न्याय के अनुसार अपराधी होते हैं, चाहे उन्हें कानून की धाराएं अपराधी घोषित नहीं करती हों।
स्वयं हलवा खाना चाहते है, इसलिए दूसरों के मुहं में जा रहा निवाला छिनेंगे, क्योंकि हम सक्षम है और ऐसा दुस्साहस कर सकते हैं। भारत की सामाजिक व्यवस्था की इस खतरनाक प्रवृति पर जब तक सरकार का अंकुश नहीं लगेगा, तब तक भारतीय समाज के लिए अच्छे दिन आने वाले नहीं है। जमाखारी पर महज बयानबाजी से जमाखोरों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। इन अपराधियों पर सरकारी चाबुक की मार चाहिये, ताकि वे यह समझ पाये कि जनता की सरकार क्या होती है और उसके पास क्या अधिकार होते हैं।
वित्तमंत्री ने राज्य सरकारों को निर्देश दे दिया कि जमाखोरी पर अंकुश लगावें। राज्य सरकारों ने इंस्पेक्टरों को भेज दिया। इंस्पेक्टर जमाखाोरों से रिश्वत खा कर घर आ गये। जमाखोरी होती रही। व्यापारी मुनाफा कमाते रहें। वे अमीर होते रहें और जनता गरीब। आज तक ऐसा होता आया है। पिछली सरकारें ऐसा ही करती आयी थी। क्या मोदी जी की सरकार भी इसी औपचारिकता की पुनरावृति करेगी ? बेहतर होता वित्तमंत्री नौकरशाहों द्वारा सुझाये गये सुझावों को जनता के समक्ष परोसने के बजाय स्थिति का अध्ययन करते और फिर बयान बाजी करते।
मोदी सरकार को राज्य सरकारों और उनके इंस्पेक्टर राज पर भरोसा नहीं करना चाहिये। जमाखोरी को गम्भीर समस्या मानते हुए इस समस्या का समाधान खोजने के लिए सरकारी जांच एजेंसियों और सांसदों का सहयोग लेना चाहिये। केन्द्र सरकार जमाखारों की सम्पति भी कुर्क कर सकती है। सरकार के ऐसे फैंसलों को ही कडवे और कठोर फैंसले करहते हैं, जिसकी मार अपराधियों पर पड़े, न कि जनता पर। वित्तमंत्री अरुण जेटली ने महंगाई के संबंध में जो बयान दिया, वह नौकरशाही द्वारा तैयार किया गया बयान ही था। ऐसे बयानों से वर्तमान सरकार के मंत्रियों को परहेज करना चाहिये। सतारुढ होते ही यदि सरकार जमाखोरों पर चाबुक बरसाती, तो सभी के मन में भय बैठ जाता, जो परिस्थतियां आज बनी है वह नहीं बनती। जमाखोरी कठोर कार्यवाही से रोकी जा सकती है, शाब्दिक बयानों से नहीं।
भारत की सुविधाभोगी और भ्रष्ट बिरादरी वातानुकूलित कमरों में बैठ कर ही जनता की समस्याओं के बारें में सोचती है और उसका निराकरण सरकार को सुझाती है। सरकार के मंत्री यदि बिना समस्याओं का गहन अध्ययन किये ज्यों का त्यों जनता को उसी भाषा में समझाने का उपक्रम करेंगें, तब पिछली सरकार और इस सरकार में अंतर ही क्या रहेगा ? कांग्रेस सरकार से जनता को चिढ़ इसलिए हो गयी, क्योंकि अपराधी मौज मस्ती से जिंदगी गुजार रहे थे और जनता कष्ट भोग रही थी।
पिछली सरकार से मोदी सरकार को दिवालियां अर्थ व्यवस्था उपहार में मिली है। अर्थ व्यवस्था को पटरी पर लाने का काम चुनौतीपूर्ण है। सरकार अर्थव्यवस्था को तभी सुधार सकती है, जब आर्थिक अपराधियों की धड़पकड़ तेज हो। सरकारी खजाने में आने वाले धन को रोकने और सरकारी खजाने से जाने वाले धन को लुटने पर जब तक प्रतिबंध नहीं लगेगा, तब तक सरकार की काई भी नीति सफल नहीं होगी। जो लोग सरकारी खजाने से वेतन लेते हैं, किन्तु हानि सरकार को ही पहुंचाते हैं, ऐसे अपराधियों को चुन चुन कर जेल सिंकजों के पीछे नहीं भेजा जायेगा, तब तक पूरे देश में वित्तीय अनुशासन नहीं आयेगा।
नराजनेता, नौकरशाह और उद्योगपतियों के शक्तिशाली त्रिगुट के अवैध संबंधों की प्रगाढ़ता ही भारत की सारी समस्याओं की जड़ है। विश्व में भारत को दरिद्रतम और भ्रष्टतम देश होने का तमगा भी इसी त्रिगुट ने दिलाया है। इस त्रिगुट की प्रगाढ़ता को समाप्त करने के लिए मोदी सरकार ने अब तक कोई पहल नहीं की है, जबकि सरकार बनते ही उसकी पहली प्राथमिकता यही होनी चाहिये। यदि वाजपैयी सरकार त्रिगुट के अवैध संबंधों को समाप्त करने का किंचित भी प्रयास करती, तो उसकी लोकप्रियता बहुत अधिक बढ़ जाती। कांग्रेस संस्कृति से परहेज करने के बजाय आत्मसात करने के परिणामस्वरुप ही वाजपैयी सरकार फिर सत्ता में नहीं लौटी। आशा है मोदी सरकार इतिहास की पुनरावृति नहीं करेगी।
काले धन के उत्पादन और बाजार में इसके उत्पात पर सरकार को कडी नजर रखनी होगी, अन्यथा काले धन का भारतीय अर्थव्यवस्था में समानान्तर प्रवाह उसके सारे दावों और वादों को खारिज कर देगा। देश भर में बेईमानों की बैमानी सम्पति को चिंहित करने का कार्य प्रारम्भ कर देना चाहिये। यह कार्य ज्यादा जटिल नहीं है। सारी काली कमाई जमीनों और मकानों में फंसी हुई है, इस कमाई का आंकलन सरकार अपनी इच्छा शक्ति से कर सकती है। एक साथ पूरे देश में छापे मारे जा सकते हैं। सरकार का यह संकल्प देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर ले आयेगा। देश में एक ऐसा वातावरण बन जायेगा, जिससे बेइ्र्रमान खोप खायेगें। भ्रष्ट आचरण पर अंकुश लग जायेगा। ऐसा होना ही अच्छे दिन की शुरुआत माना जायेगा।
यदि वास्तव में सरकार के मन में देश भर में फैली काली कमाई का आंकलन करने की इच्छा है, तो वह दिल्ली को ही प्रयोग के रुप में ले सकती है। सरकार को अल्प समय में ही अरबो रुपये की काली सम्पति का पत्ता लग जायेगा। यदि इसी प्रयोग को देश भर में दोहराया जाय, तो जनता को चकित कर देने वाली सम्पति का विवरण मिल जायेगा। आज़ादी के बाद जो राजनीतिक व्यवस्था बनी है, उसने देश को सेवा देने के बजाय काले धन के उत्पान और उपयोग में ज्यादा रुचि दिखाई है। गरीब जनता की गाढ़ी कमाई को लूट कर पैदा किया गया काला धन विदेशी बैंकों में तो जमा ही है, देश के अधिकांश बड़े और छोटे शहरों में इसका जलवा दिखाई दे रहा है। यह भारतीय अर्थव्यवस्था को बर्बाद कर रहा आर्थिक आतंकवाद है, जो गोलियों से जनता की जान नहीं लेता, अपितु छुप कर उसके पेट पर लात मारता है, जिससे वह जीवित तो रहता है, किन्तु तड़फ-तडफ कर दम तोडता है। मोदी सरकार ने इन आर्थिक अपराधियों के विरुद्ध यदि नरमी का व्यवहार किया तो देश की जनता कभी माफ नहीं करेगी।
पिछली सरकार सीबीआई का उपयोग अपने घोटालों पर लिपापोती करने और विपक्ष को धमकाने के लिए प्रयोग करती थी। मोदी सरकार सीबीआई का उपयोग काले धन का पत्ता लगाने और बड़े-बड़े आर्थिक अपराधियों को पकड़ने में कर सकती है। यह सुझाव बुरा नहीं है। पूरे देश की जनता इसकी समर्थक है। यदि ऐसा किया जाता है तो अच्छे दिन आने वाले हैं, महज एक नारा या भविष्य का मजाक बन कर नहीं रह जायेगा।