Monday 14 April 2014

जो हमदर्द बनने का ढोंग कर रहे हैं, वे ही दर्द की सौगात दे रहे हैं

आंखों पर मजहबी जुनून की पट्टी बांध कर जिन्हें अंधेरे में ठोकरे खाने के लिए छोड़ दिया है, वे तब तक अपनी तक़लीफों के बारें में उन्हें ही दोषी समझते रहेंगे, जिनके बारें में उनके कानों में जहर भरा जाता है। कान तो महज सुन सकते हैं, देख नहीं सकते, इसलिए कहने वालें की नीयत भांप नहीं पाते। काश ! वे आंखों पर बंधी पट्टी खोल पाते और आपने आस-पास के चेहरों को समझ पाते, तो अपनी बद से बदत्तर हुई हालत का रहस्य जान पाते। उन्हें समझ आ जाता कि उनकी गरीबी, बदहाली, पिछड़ापन के जिम्मेदार कौन है। वे ही लोग हैं, जो दर्द की सौगात दे रहें हैं, किन्तु हमदर्द बनने का ढ़ोग कर रहे हैं।
सियासी चौसर के बेजान मोहरों की तरह मुसलमानों का उपयोग मात्र बाजिया जीतने के लिए किया जाता रहा है। जो बाजियां जीतते रहें, वे तो मालामाल होते रहें, परन्तु उन्हें बदलें में कुछ नहीं दे पायें। वे देना भी नहीं चाहते, क्योंकि उनकी नज़़रों में उनकी औकात थोक वोटों के अलावा कुछ नहीं हैं। यदि आंखों की पर बंधी पट्टी खोल पाते, तो वे सही और गलत की पहचान कर पाते। जीवन खुशहाल बनाने के लिए बच्चों को अच्छी तामिल दे पातें। अच्छी ज़िदगी जीने के लिए बेहतर नौकरियां तलाशते। उनके जीवन में उजाला हो जाता, तो वे महज वोट बैंक नहीं रह पाते। दरअसल मुस्लिम समुदाय के मन में उजाले की ललक तो हैं, परन्तु वे आंखों पर बंधी पट्टी हटाने का साहस नहीं कर पा रहे हैं।
आंखों की पट्टी खुल जाती तो इतिहास की इबारत पढ़ी जा सकती है। इतिहास के पन्नों पर उन खलनायकों के कारनामें दर्ज हैं, जिन्हें अब भी रहनुमा बताया जाता है। मसलन पंड़ित जी जिन्ना के कंधे पर हाथ रख कर और उनकी आंखों में आंखें डाल कर इतना भर बोल देते – ‘’ मैं पंड़ित जवाहर लाल नेहरु, मोहम्मद अलि जिन्ना को आज़ाद भारत का पहला मुस्लिम प्रधानमंत्री घोषित करता हूं। यदि ऐसा होता तो आकाश में घुमड़ रही अविश्वास की घटाएं बरस जाती। पाकिस्तान नहीं बनता। लाखों जीवन बरबाद नहीं होते। करोड़ो तबाह नहीं होते। किन्तु नेहरु ऐसा नहीं कह पाये। उनका गरुर, उनकी अतृप्त महत्वाकांक्षा करोड़ो जीवन से बड़ी थी। उन्होंने जिन्ना को जानबूझ कर अपमानित किया था, उसकी भारी कीमत भारत राष्ट्र को चुकानी पड़ी।
कश्मीर समस्या शतप्रतिशत पंड़ित जी की देन है। पाकिस्तान का जीवन ही कश्मीर के तोते में कैद है। कश्मीर समस्या नहीं पैदा होती, तो चार-पांच युद्ध नहीं होते। नफरत की दीवार मजबूत होने के बजाय ढ़ह जाती। रावी और चिनाब का पानी दोनो देशों को एक कर देता। पंड़ित जी की गम्भीर भूल से आज़ादी के बाद की पांच पीढ़िया को अनचाहे कष्ट नहीं भोगने पड़ते।
राजीव गांधी ने रामजन्म भूमि के ताले खुलवा कर बर्र के छज्जे पर जानबूझ कर पत्थर फैंका था। बाईस बरस बाद आज एक कोबरें में जहर भर कर स्टिंग आपरेशन करने वाले यह क्यों भूल जाते हैं कि राम मंदिर का शिलान्यास कांग्रेस सरकार के प्रधानमंत्री ने किया था। उन्होंने पूजा कर वहां राम मंदिर बनाने का संकल्प लिया था। यह क्यो भूल जाते हैं कि विवादित ढ़ांचा ढहाये जाने के समय प्रधानमंत्री कांग्रेस सरकार का था, जो यदि चाहते तो इस दुखद घटना को रोक सकते थे। परन्तु सियासी नाटक का मंचन प्रारम्भ करने वाले अंत में हट जाते हैं और सार दोष उन पर डाल देते हैं, जिन्होंने नाटक का अंत एक क्लाइमेक्स के साथ किया था। अपने सियासी लाभ के लिए अपनी भूमिका को भूल कर जनता के जेहन में उन कलाकारों की याद दिलाते हैं, जिन्होंने उस नाटंक का अंत किया था। यह कपट नीति हैं। जनता का मूर्ख बनाने का कुत्सित प्रयास है।
गोधरा में रेल की बोगियां में लोगों को ज़िदा नहीं जलाया जाता, तो गोधरा की लपटे पूरे गुजरात को नहीं झुलसाती। दस वर्ष से गुजरात की बुझी हुई आग पर सियासी रोटियां सेकने की कोशिश की जा रही है। गुजरात तो गोधरा की लपटों से झुलसा था, किन्तु मुजफ्फर नगर में तो कोई आग ही नहीं लगी थीं। मामलूी घटना थी। इस घटना को जानबूझ कर थोक वोटों पर अनुकम्पा दर्शाने के लिए बड़ा किया गया। सुनियाजित तरीके से दंगा भड़काया गया। प्रशासन कई दिनों तक तमाशबीन बना रहा, इसलिए दंगाईयों के हौंसले बढ़ते गये। दंगा करवाया। लोगों को रुलाया। उनके घरों को उजाडने में मदद की। अब पीड़ितों पर पंद्रह हजार करोड़ खर्च कर उनसे वोट मांगे जा रहे हैं। पर अनुकम्पा भी दोनो समुदाय के पीड़ितो के प्रति नहीं, एक समुदाय पर ही, ताकि नफरत अधिक बढ़े। गुस्सा बढ़े। लोग अकारण ही पुनः आवेशित हो जाय, जिसका सियासी लाभ बटोरा जाय। क्या यह सियासत का सबसे घटिया और निकृष्ट रुप नहीं है ? पहले नागरिकों को धर जलने दों। लोगों को मरने दों। थोड़े दिन बाद उन रोते हुए लोगों के पास जाओं और कहो- ये रुपये लों, अपना घर बना लों और जो मर गये उनको भूल जाओ। पर याद रखों वोट हमे ही देना। यदि नहीं दोगे तो भविष्य में न तो कोई बचायेगा और न ही सरकारी सहायता मिलेगी।
गुजरात त्रासदी एक दुखद घटना के प्रतिकार में यकायक भड़की आग थी, जिसे काबू पाने में देर लगी थी, तब तक यह बहुत कुछ जला चुकी थी, किन्तु मुजफ्फरनगर में तो आग एक सुनियोजित षड़यंत्र के तहत लगायी गयी थी। प्रश्न उठता है कि केन्द्र की एक सरकार और उसकी सारी मशीनरी, मानवाधिकार पिछले दस वर्ष से गुजरात सरकार के मुखियां को अपराधी घोषित करने में अपनी सारी शक्ति खर्च कर रहे हैं, वे मुजफ्फरनगर त्रासदी पर क्यों मौन है ? जांच एंजेसियों को हकीकत जानने के लिए और उन षडयंत्रंत्रकारियों के काले कारनामें उजागर करने के लिए जानबूझ क्यों नहीं लगाया जा रहा है ? क्योंकि वे जानते हैं यदि नंगा सच सामने आ जायेगा, तो सभी पार्टियों की धर्मनिरपेक्षता संकट में पड़ जायेगी। समझ में नहीं आता गुजरात दंगो की रट लगाते हुए नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध बराबर कुछ न कुछ बोलने वाली सियासी पार्टियां मुजफ्फर नगर त्रासदी और अखिलेश सरकार की दंगो में संलिल्पतता की याद दिलाने में क्यों हिचक महसूस होती हैं ? क्या वहां दंगे नहीं हुए थे ? क्या वहां बेकसूर लोगों की हत्या सियासी षड़यंत्र के तहत नहीं हुई थी ?
बोटी बोटी काटने जैसे दुर्भावना वाले बयान देने वाले शख्स की पीठ थपथपाना और प्रत्युत्तर में दी गयी प्रतिक्रिया पर बवंडर करने के उपक्रम को किस प्रकार की धर्मनिरपेक्षता कहा जा सकता है ? बर्र के छज्जे पर पत्थर फैंको और जब मधु मक्खियां काटने दौड़े तब सारा दोष अपनी प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दल पर डाल कर भाग जाओ, यही छल नीति है। थोक वोट पाने की धूर्त कोशिश है।
आप गरीब, पिछडे़ हैं, अभावों में बहुत तक़लीफ दायक ज़िंदगी जी रहे हैं, तो जियों। आपकी हालात हम नहीं बदलेंगे, क्योंकि यह हमारे लिए लाभ का सौदा नहीं है। हम तो यही चाहते हैं कि आपकी हालत इससे भी ज्यादा खराब हों, ताकि आपकी आंखों पर बंधी पट्टी खोलने का प्रयास नहीं करें। आपके हाथों में धर्मनिरपेक्षता का तंबुरा थमा रखा है, इसे बजाते रहों, साम्प्रदायिक शक्तियों के भय से बचने के लिए कव्वाली गाते रहो। हम सदा आपके साथ रहेंगे जब तक आपके थोक वोट हमें मिलते रहेंगे। क्योंकि हमारी नीति यह है कि हिंदुओं को जातियों के आधार पर बांटों, पिछड़े और दलित हिदुंओं के साथ मुस्लिम वोटों का समीकरण बिठा, चुनाव जीतों। यह सत्ता तक पहुंचने का शार्ट कट है। खुदा न करें आपकी आंखों पर पट्टी खुल जाय और आप नग्न आंखों से सारी हकीकत समझ जायें। जब ऐसी होगा, हमारी सियासत खत्म हो जायेगी। हमारा अस्तित्व मिट जायेगा। परन्तु हम ऐसा होने नहीं देंगे। हमे भारत की जनता की तकलींफो से कोई मतलब नहीं हैं। देश के विकास से कोई मतलब नहीं हैं। हमें सिर्फ सत्ता चाहिये। अधिकार चाहिये, ताकि जनता को मूर्ख बना कर लूटते रहें।

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