Saturday 31 August 2013

राजनेता की पारी खेलते खेलते आप थक गये हैं प्रधानमंत्री जी !

आपने अपने ज़मीर के साथ दगा किया है। आपने एक व्यक्तित्व को उपकृत करने के लिए एक सौ पच्चीस करोड़ भारतीयों के साथ दगाबाजी की है। पिछले साढ़े नो वर्षो में बार-बार राजनेता बनने के प्रयास में अपने भीतर बैठे अर्थशास्त्री को मारने का प्रयास करते रहे हैं। आप सफल अर्थशास्त्री जरुर थे, परन्तु विफल राजनेता साबित हुए हैं। राजनेता की पारी खेलते खेलते आप थक गये हैं, प्रधानमंत्री जी ! शायद इसलिए आप बौखला गये हैं।
आदमी तभी टूटता है, जब उसका अंतःकरण उसे धिक्कारता है। अपने तप के बल पर अर्थशास्त्री बन कर जो पूण्य आपने कमाया वह  इन साढ़े नो वर्षों में राजनेता बन कर गवां दिया। आप एक अर्थशास्त्री बन कर सच बोलने के प्रतिबंधित किये गये हैं और राजनेता बन कर झूठ बोलना आपको आता नहीं, इसीलिए बहुत ही गम्भीर समस्याओं के समय आप चुप्पी साधे रहते हैं। आपको मौनी बाबा कहा जाता है, क्योंकि आपका मौन देश को अखरता है। यही कारण है कि आपको इतिहास के सबसे कमज़ोर प्रधानमंत्री का खिताब मिला हुआ है। इसके अलावा भी कई तरह के अलंकारों से अलंकृत किया जाता रहा है। आप पर जितने कटाक्ष किये गये हैं उतने षायद ही दुनियां के किसी लोकतांत्रिक देश के राष्ट्राध्यक्ष को ले कर किये गये होंगे।
विपक्ष इसका दोषी हो सकता है, किन्तु आप अपनी क्षमता को क्यों नहीं आंकते हैं ? आप यह क्यों नहीं समझ पा रहे हैं, कि भारतीय संविधान ने प्रधानमंत्री को असीम शक्तियां दी है और वह सर्वाधिक शक्तिशाली व्यक्ति माना जाता है। किन्तु क्या आपके पास वे सभी शक्तियां है ? यदि हैं तो आपने उनका आज तक उपयोग क्यों नहीं किया ? यह सच है कि आपके पास नाम मात्र के अधिकार है। आप स्वतंत्र हो कर कोई निणर्य नहीं ले सकते। आपको निर्देशानुसार बोलना पड़ता है। वे नीतियां लागू करनी पड़ती है, जिनसे आप सहमत नहीं होते हैं। आप इतने कमज़ोर प्रधानमंत्री हैं कि जिस व्यक्तित्व के पास प्रधानमंत्री के पद के वास्तविक अधिकार हैं, उनकी कृपा के बिना आप एक मिनिट प्रधानमंत्री पद पर नहीं रह सकते। यह हक़ीकत है, जिससे से आप रुबरु हैं। यही हक़ीकत इस देश का दुर्भाग्य है।
दुनियां के किसी लोकतांत्रिक देश में ऐसा प्रधानमंत्री नहीं है। भारत के संसदीय इतिहास में भी कोई ऐसा प्रधानमंत्री अब तक नहीं हुआ है। भारत के इतिहास में भी ऐसा एक भी उदाहरण नहीं मिलता, जिसमें एक व्यक्ति दस साल तक प्रधानमंत्री रहा हो, किन्तु उसने लोकसभा का चुनाव नहीं जीता हो। उसके  के पास इतनी भी क्षमता नहीं हों कि वह अपने व्यक्तित्व के प्रभाव से दो सांसदों को जीता कर लोकसभा में भिजवा सकें।
आपको सरकार की गलत नीतियों के दुखद परिणामों से क्रोध क्यों आता है ? क्या इसका दोषी विपक्ष है ? विपक्ष सहयोग नहीं करता है, परन्तु क्या सतापक्ष विपक्ष को सम्मान देता है ? आप जब बोलते हैं तब विपक्ष हल्ला करता हैं, किन्तु विपक्ष के नेता कुछ बोलते हैं, उन्हें क्यों रोका और टोका जाता है? सदन की गरिमा को नष्ट करने के लिए यदि विपक्ष दोषी है, तो सता पक्ष का भी इसमे कम योगदान नहीं है, इस तथ्य को स्वीकार क्यों नहीं किया जाता ?
पांच लाख करोड़ घपलों घोटालों में उड गये और पांच लाख करोड़ सरकार के ड्रिम प्रोजेक्ट की भेंट चढ़ गये। किसी उभरती अर्थव्यवस्था के राजकोष से यदि दस लाख करोड़ रुपयों का अपव्यय होता है, तो निश्चय ही उभरती हुई अर्थव्यवस्था रसातल में जायेगी। आप जानते हैं भारत की अर्थव्यवस्था की खस्ता हालत का यही मुख्य कारण है। फिर आप विपक्ष को कोसने के बजाय इस विषय पर क्यों मौन रहते हैं? देश को कंगाली के कगार पर ले जाने के बाद विपक्ष को कोसना और अपने दोषों को अस्वीकार करना कहां तक न्यायोचित हैं।
एक सप्ताह से देश आर्थिक झंझावत की पीड़ा से कराह रहा था। इस विकट घड़ी में तुरन्त प्रधानमंत्री को जनता के समक्ष आना था और ढ़ाढस बंधाना था। देश को इस संकट से बाहर निकालने के उपाय बताने थे। परन्तु प्रधानमंत्री चुप रहे। इंतज़ार के बाद सदन में बोले। जो कुछ बोले वह तो वे नींद से उठ कर कभी भी बोल सकते थे। आपके पास अर्थव्यवस्था को ठीक करने के कोई उपाय ही नहीं है, तो फिर कुछ भी बोलने से क्या लाभ होने वाला था? दम तोड़ते हुए मरीज को दवा की जरुरत रहती है, उसे यह जानना आवश्यक नहीं रहता है कि वे क्या कारण थे, जिससे उसकी ऐसी हालत हुई।
भारत के अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री को सदन में मात्र एक वाक्य बोलना था- ‘हम एक वर्ष के लिए सरकार के सारे ड्रीम प्रोजेक्ट स्थगित कर रहे हैं और विदेशों में जमा काले धन को शीघ्र् देश में ला रहे हैं।’ यदि वे ऐसा बोलने का साहस कर पाते, तो एक ही दिन में ही रुपया अपने पहले के स्तर पर आ जाता। विदेशी निवेशक भारत में निवेश के लिए दौड़ पड़ते। भारत की आर्थिक हालत एक झटके में पटरी पर आ जाती। परन्तु वह ऐसा नही कर पाये। पार्टी को किसी हालत में चुनाव जीतना है, चाहें देश डूब जायें अर्थव्यवस्था बरबाद हो जायें। और कालाधन देश में लाने की बात में वे क्यों करेंगे ? क्योंकि ऐसा निणर्य उनके लिए आत्मघाती साबित हो सकता है। अपने को बर्बाद कर के देश को खुशहाल करना वे भला क्यों चाहेंग ?
प्रधानमंत्री को वस्तुतः यूपीए नाटक-मंचन में विचित्र पात्र की भूमिका अभिनित करने के लिए दी गयी है। उन्हें घर का मुखिया बनाया गया है। घर में रखे गये धन की घर के ही लोग चोरी करते हैं। वे मुखिया हैं किन्तु उन्हें निर्देशक ने निर्देश दे रखा है कि उन्हें मूक दर्शक बन कर देखना है। उन्हें रोकना और टोकना नहीं है। इसीलिए वे मौन होने का अभिनय करते हैं। आंखें बंद कर मुहं दूसरी ओर कर लेते हैं। कभी-कभी उन्हें चोरी के दौरान बैठे-बैठे ऊंघते हुए दिखाया गया है। जब चोरी की बात मालूम पड़ती है। शोर होता है। वे चुप रहते हैं। दूसरे लोग आगे आ कर उनका बचाव करते हैं। अन्य पात्र चीख-चीख कर कहते हैं- कोई चोरी नहीं हुईं। सब झूठ है। हमे बदनाम करने की साजिश है।
परन्तु साजिश का पता लगा जाता है। जांच होती है। सभी दोष उन पर आते है, क्योंकि वे घर के मुखिया है। लोग चिल्ला-चिल्ला कर उन्हें कुछ पूछते हैं और वे चुप्पी साधे रहते हैं। वे यह भी नहीं कह पाते कि मैं निर्दोष हूं। मैंने चोरी करते हुए देखा जरुर है, किन्तु मेरे पास चोरी का एक ढ़ेला भी नहीं है। उनकी बेबसी उनकी आंखों में झलकती हैं। अपने आपको चोर कहने से वे तड़फ उठते हैं, किन्तु अपने आपको रोकने का भरसक प्रयास करते हैं।
नाटक के अंतिम दृष्य में एक शांत और गम्भीर भूमिका निभाने वाले पात्र का अंततः सब्र का बांध फूट पड़ता है। वे अपने आपको रोक नहीं पाते और खिझते हुए अपनी व्यथा को प्रकट करते हैं। किन्तु यह नही बताते कि चोर कौन है ? चोरी किया गया धन किसके पास है? सिर्फ यह कहते हैं कि मुझे काम नहीं करने दिया जाता है। मुझे चोर कहा जाता है। इस अभिनय के दौरान उनके चेहरे पर पीड़ा के जो भाव उभरते हैं, उसे देखते हुए उन पर दया आ जाती है।  सहसा उस पात्र के प्रति सहानुभूति होने लगती है।

4 comments:

  1. धन्यवाद पूरनमल जी

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  2. बहुत सुन्दर आलेख .. आपकी इस रचना के लिंक की प्रविष्टी सोमवार (02.09.2013) को ब्लॉग प्रसारण पर की जाएगी, ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया पधारें .

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  3. This comment has been removed by the author.

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