Friday 16 August 2013

हम बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक नहीं, हम एकसंख्यक भारतीय है

हमारी पहचान भारतीय है। हमारी राष्ट्रीयता भारतीय है। हमारी जन्म भूमि और कर्मभूमि भारत है, फिर हम अपने ही देश में अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक कैसे हो सकते हैं? इसी धरती पर हम पैदा हुए।  इसी धरती पर हम अपने नन्हें कदमों से पहली बार खड़े हो कर इतराये थे। यहीं हमारे पुरखे दफनाये गये या जलाये गये थे। इसी धरती पर अपना माथा टेक कर खुदा की इबादत  करते हैं। देव प्रतिमा के समक्ष अपना मस्तक झुका उनकी आराधना करते हैं। इसीलिए इस भूमि से हमारा भावात्मक लगाव है। यह भूमि हमारी मां है। मां हमेशा अपने बच्चों को एक ही  नज़र से देखती है। मां अपना वात्सल्य सभी पर समान रुप से लूटाती है। उसकी नज़र में कोई बड़ा और छोटा नहीं होता। सभी उसे अपने ज़िगर के टूकडे़ नज़र आते हैं। इसी तरह धरती मां  अपनी संतानों का बंटवारा नहीं करती।  वह उन्हें बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक की नज़रों से नहीं देखती। इसीलिए हम सब एक है। एकसंख्यक भारतीय है। इस हक़ीकत को झूठलाया नहीं जा सकता।
मजहब जोड़ता है। बांटता नहीं है। मजहब को आधार मान कर नागरिकों की पहचान करना एक गलत अवधारणा हैं। उपासना पद्धति अलग हो सकती है, परन्तु भाव तो एक ही है। सभी उस परमशक्ति से अपने आपको जोड़ने का प्रयास करते हैं। अपने किये गये पापों के लिए क्षमा मांगते हैं। परवरदिगार से खुशहाली और अमन चेन की कामना करते हैं।
शिव, कृष्ण, हनुमान, दुर्गा, भैरव की उपासना की अलग-अलग विधि हैं। इसके अतिरिक्त भी भारत में कई दैवी देवता अलग-अलग विधि से पूजे जाते हैं। क्या जिस देवता को सर्वाधिक लोग पूजते हैं, वे उस धर्म के बहुसंख्यक और जिस देवता को कम लोग पूजते हैं, वे अल्पसंख्यक हो गये ? यदि नहीं हुए तो मजहब को आधार मान कैसे नागरिकों का बंटवारा किया जा सकता है?  कैसे यह कहा जाता है कि अल्लाह, क्राइस्ट, महावीर, बुद्ध और गुरुनानक को मानने वाले इस देश में कम हैं, इसलिए वे अल्पसंख्यक हैं और हजारों दैवी-देवताओं को पूजने वाले इस देश में सर्वाधिक हैं, इसलिए वे बहुसंख्यक है? देवताओं को पूजने के आधार पर यदि नागरिकों का वर्गीकरण किया जायेगा, तो यह एक जटिल और दुरुह प्रक्रिया हो जायेगी।
दरअसल, मजहब को सियासी रंग देने से इसके दुखद परिणाम प्राप्त हुए हैं। सियासत को छल, कपट, स्वार्थ और हिंसा से परहेज नहीं होता, अत: जब इसे मजहब के साथ मिलाया जाता है, तब मजहब की पवित्रता नष्ट हो जाती है। इसमें विकृतियां उत्पन्न हो जाती है।  मजहब को आधार बना भारत भूमि का बंटवारा जिन लोगों ने मांगा था, वे विशुद्ध सियासी थे, उन्हें मजहब से कोई सरोकार नहीं था। इंसानियत को कलंकित करने के लिए उन्होंने सियासत को मजहब का चोला पहनाया था। उन्हें शायद नहीं मालूम था कि भारत कुछ वर्षों पहले नहीं बना है। भारत को बनने में हजारों वर्ष लगे हैं। भारत एक राष्ट्र नहीं, संस्कृति है, जिसकी पावन धारा हज़ारों वर्षों अविरल से बह रही है। इस धारा ने सभी को अपने में समाहित कर दिया है। इसे ही गंगा जमुनी संस्कृति कहते हैं। इस धारा से कट कर अलग होने का दुस्साहस जिन्होंने किया, उसका सुख चेन चला गया।
इस संस्कृति से काट कर जिन्हें अलग किया वे छियांसठ वर्ष से पाकिस्तान बना रहे हैं, किन्तु बना नहीं पाये। अलबता पाकिस्तान को हैवानिस्तान बनाने में जरुर सफल रहे हैं। हैवानिस्तान का एक भाग तो बंगलादेश बन कर फिर भारतीय हो गया, किन्तु वे अभी भी पाकिस्तान बनाने की निष्फल कोशिश में लगे हुए हैं। यदि हैवानिस्तान की जान कश्मीर के तोते में कैद नहीं होती, तो अब तक इसके टूकड़े-टूकड़े हो जाते। क्योंकि मनुष्य के भीतर जो संस्कार बैठे रहते हैं, उन्हें कभी समाप्त नहीं किया जा सकता।
पाकिस्तान, जो बना ही नहीं, परन्तु उसको मान्यता देने के लिए नफरत की दीवार मजबूत करने की कवायद की जाती रही है। चार युद्ध लड लिए, परन्तु परिणाम सिफर ही रहे। पिछले तीस वर्षों से एक अघोषित युद्ध लड़ा जा रहा है, जिसमें सेनाएं आमने सामने रह कर युद्ध नहीं लड़ती। दहशदगर्दो को भेजा जाता है, जो  बम विस्फोट कर बेकूसर लोगों को मारने का दरिंदगी करते हैं। हज़ारों लोगों की धोखे से जान ले चुके हैं, किन्तु अब तक उन्हें हांसिल कुछ नहीं हुआ। जो कुछ वे  कर रहे हैं यदि मजहब का नाम लें  कर रहे हैं, तो उस मजहब को अपिवत्र कर रहें हैं। वे मजहबी है ही नहीं। वे उन्मादी है। उनका मकसद सिर्फ अपने स्वार्थ की पूर्ति करना है।
अत: जो अलग हो कर भी सुख-चेन से नहीं रह पाये। जो अपने देश को पाक याने  पवित्र देश नहीं बना पाये, किन्तु वे  भारतीयों को भारतीयता से अलग करने की कोशिश में लगे हुए हैं। शायद उन्हें अहसास है कि उनकी यह कोशिश ज्यादा रंग लायेगी। क्योंकि भारत में रहने वाले एक समुदाय के आगे लगाया जाने वाला अल्पसंख्यक विशेषण उनके लिए काफी मददगार बन रहा है। उन्हें यह समझाया जा रहा है कि हिंदुस्तान में आप अल्पसंख्यक याने दोयम दर्जे के नागरिक हैं। आप जेहादी बन कर हमारे साथ आ जायें हमारा सहयोग करें और अपने मजहब के लिए मर मिटे। अनजाने में वे भोले भारतीय, कुंठित हो कर एक दुष्चक्र में फंस रहे हैं। उन्हें शायद नहीं मालूम कि सियासत जब मजहब को अपने रंग में रंगती है, तब रुह की पवित्रता नष्ट हो जाती है और फितरत पैदा हो जाती है, जो ऐसे रास्ते की और धकेलती है, जहां अंधेरा ही अंधेरा है। इस अंधेरे में ठोकरे खाने के अलावा कुछ नहीं है।
यह सही है कि उस समुदाय की हालत बदतर हो गयी है। किन्तु उनकी ऐसी हालत का जिम्मेदार भारत, भारतीयता और भारतीय नागरिक नहीं हैं, वरन वह सियासत है जो अल्पसंख्यक विशेषण को पैमाना मान  की जाती है। उन्हें बहुसंख्यक समाज से अलग मान कर उनके मन में यह बात बिठाई जाती है कि हमारे साथ रहो। हमे वोट देते रहों। हम आपके रहनुमा है। आज भारत की अनेक राजनीतिक पार्टियों का अस्तित्व अल्पसंख्यक समुदाय के वोटों पर टिका हुआ है। यदि उनके थोक वोट उन्हें नहीं मिले और बंट जाये, तो अनेक राजनीतिक पार्टियों और उनसे जुड़े नेताओं का भविष्य ही अंधकारमय हो जायेगा।
प्रश्न उठता है आखिर कब तक एक समुदाय विशेष के आगे अल्पसंख्यक विशेषण लगा कर उन्हें मानसिक यंत्रणा दी जाती रहेगी? आज की परिस्थितियों में क्यों नहीं हम इस अवधारणा को पुष्ट करें कि भारत में रहने वाला हर नागरिक भारतीय है। वह न बहुसंख्यक है और न ही अल्पसंख्यक है। हम सब एक संख्यक भारतीय है।
यदि ऐसा हो गया तो हैवानिस्तान से जुड़े हुए हैवानों को अपने घृणित मकसद को पूरा करने में कामयाबी नहीं मिलेगी। उनके द्वारा भेजे गये दरिंदों को कहीं शरण नहीं मिलेगी। हम सब भारतीय एकजुट हो कर उनके इरादों को निष्फल करने का प्रयास करेंगे। पर यह तभी सम्भव होगा जब सियासत को मजहबी रंग देने का प्रयास बंद हो जाय।

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